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Friday, 27 January 2017

Films, Feminism and Reservation Policy

नारीवादी ओ को नारी प्रधान फिल्मो जैसे की पिंक और दंगल में एक बात खटकती है। ऐसा क्यूँ की इन फिल्मों में सुधारवादी या नारी सशक्तिकरण की बाते कोई बूढ़ा सा पुरुष की जबान में कही जाए?
एक जवाब है।
एक हिंदी कविता में ये लिखा है जो काफी महत्वपूर्ण है।

तुम्हारे भीतर है सदियों पुराना  एक खूसट बूढ़ा जो लाठियां ठकठकाते अभी भी अपनी मुंछों को तेल पिलाते रहता है आखिर तुम कैसे उसकी झुर्रियों के जाल से बाहर आ पाओगी

आखिर कोई कैसे सदियों तक अपनी जमीन बंधक रहने दे सकता है।

इस कविता में यह बात को पुष्टि मिलती है कि कही न कही बूढी दी पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था नारी के subjugation का कारण है। इस व्यस्था का विद्रोह, विरोध और रेजिस्टेंस होना चाहिए। यह जबतक सुबजुगटेड इडेन्टिटीज़ नहीं समजेगी और रेजिस्टेंस नहीं करेगी तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती।
इस समझ के साथ, यज भी समजना जरूरी है कि इस सुधारवादी सफर में अगर हेजिमोनिक पॉवर साथ ना देकर अगर खींचातानी में उतर आता है तो पूरी व्यवस्था में अराजकता फ़ैल जाती है।
इसलिए इस प्रकार की सुधारवादी मूवमेंट्स में हेजिमोनिक पोजीशन में रहे लोगो को आगे आने की जरूरत रहती है। एहसान करने या कुछ देने के लिए नहीं परंतु एक उत्तरदातित्व समझ कर यह करना अनिवार्य है।
बस यही पिंक और दंगल जैसी नारिप्रधान फिल्मों में बुड्ढे पुरुष कर रहे है।
यह अनिवार्य सलूशन नहीं है। इसके बिना भी यह हो सकता है। लेकुन किंतु परंतु, अगर ऐसे पेरीफेरल रेजिस्टेंस को सपोर्ट हेजिमोनिक सेंटर से मिले तो समाज अराजकता से बच कर , एकजूट हो कर प्रोग्रेस कर सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण है अपने (self) अंदर से दुसरो (other)  को समझने का प्रयास करे।

इस ऐनक के साथ रिजर्वेशन पालिसी को देखे तो आज समाज को जो बंटवारा हो रहा है उसे अराजकता से बचाया जा सकता है।
भारत के बहुत सारे राज्यो में सुवर्ण जातीओ को अल्प संख्यक या पछात जातियो में शामिल करने की मुहिम चल रही है।
इस मूवमेंट का एक कारण यह है कि बहोत सारे पछात या बिछड़ी जाती के लोग अच्छी पोजीशन में पहुँच चुके है। यह लॉग ना सिर्फ अमीर बन चुके है पर यह अब पॉवर पोज़िशन्स में है और अपना हेजिमोनिक स्ट्रक्चर बना रहे है। यह थोड़ा हानिकारक है।

जौसे पिंक और दंगल में दिखाया गया है की कोई पुरुष अगर आगे आएंगे तो बात बिना अराजकता से सुलझ सकती है, वैसे अगर वह बिछ्ड़ी जाती के लोग जो लिबरेट हो चुके है वह आगे आकर अपना सैविधानिक हक जाने दे और अपनी नई पीढ़ी को यह समझ दे तो आनेवाले कल को हम सामाजिक अराजकता से बचा सकते है।
यह परिवर्तन इन्ही जाती के लोगो से आना अनिवार्य है।
इसके साथ सवर्ण जाती के लीगो को भी अपनी नई पीढी को ऐतिहासिक समझ देनी है। इतिहास में जिन लीगो के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार हुआ उसकी भरपाई करनी अभी बाकी है - यह समझ भी इतनी ही जरूरी है।

हो यह राहा है कि जिन बिछ्ड़ी जाती के लोगो ने बेनिफिट्स लेके एक मुकाम हासिल किया है , किसी प्रकार के पावर पोज़िशन्स में पहुँच चुके है, वह लोग भी मिल रहे बेनेफिट्स का त्याग नहीं कर रहे। जिस तरह पिंक और दंगल में बुड्ढे पुरूष की आवश्यकता है, ठीक उसी तरह बैकवर्ड क्लास में प्रोग्रेसिव लोगो को आगे आने की भी आवस्यकता है।
जिस तरह महावीरसिंह फोगाट की कहानी लड़कियों के सशक्तिकरण में एक महत्वपूर्ण कदम है, ठीक उसी तरह, बिछ्ड़ी जाती से क्रीमी लेयर के लोगो को आगे आने की जरूरत है।
यह प्रक्रिया में भी अंदर के लोग ही मदद कर सकते है।
अब हम समय की ऐसी कागार पर खड़े है जहाँ इन दो प्रकार की ट्राजेक्टरी बनाना अनिवार्य है - सवर्ण जाती के लोग अपने बच्चो को ऐतिहासिक सत्य, सामाजिक अन्याय के तत्थयो को बराबर समजाये
और बिछ्ड़ी जाती के वह लोग जो आर्थिक, सामाजिक तौर पर क्रीमी लेयर बन चुके है वह आगे आये और अपना सैविधानिक अधिकार त्यागे।

हम सब जानते है यह मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं है। लोगो को एजुकेट करे तो यह हो सकता है।

एक और रास्ता भी है।
थोड़ा कठिन है।
इसमें दो जनरेशन का समय लग सकता है।
लेकिन परिणाम बेहतरीन हो सकता है।
हमें सिर्फ यह करना है कि - आजसे जन्म लेने वाले हर एक बच्चे को नाम नहीं नंबर दिया जाये।
न पहला नाम, न दूसरा नाम, न आखरी नाम। सिर्फ और सिर्फ नंबर।
हमारी भाषा और लिपि सेक्युलर नहीं है। भाषा सांप्रदायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, जातिगत, लिंगजन्य है। हमारे आंकड़े इन विभाजनों से मुक्त है। भाषा और लिपि को छोड़, आंकड़े की और जाने से शायद हम एक बेहतरीन समाज की व्यवस्था का निर्माण कर सकते है।

यूटोपिया वैसे तो ख्याली पुलाव है फिरभी मानव सहज है कि हम यूटोपिया की ख्वाहिश और सपना छोड़ नहीं सकते, तोड़ नहीं सकते।

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