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Thursday, 5 August 2021

Midnight's Children

Midnight's Children - Salman Rushdie


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4. Presentations:



Sunday, 9 February 2020

Knowledge Week 2020

Knowledge Week 2020

Maharaja Krishnakumarsinhji Bhavnagar University organised a week long Knowledge week from 3rd Feb to 8th Feb 2020. In this Knowledge Week, renowned speakers like Swami Dharmabandhuji, Dr, Anish Chandarana, Jay Vasavada, Dr. Jay Narayan Vyas, Swami Brahamavihari and Dr. Jagdish Trivedi interacted with students on topics like Youth and Nation, Health, Social Media, Economics, Human Values and Literature.












Day 1: 



Day 2: 




Day 3:


Day 4:





Day 5:




Day 6:



Monday, 28 January 2019

Country vs Nation-State: देश बनाम राष्ट्र : भगवत रावत : Bhagwat Rawat

*देश एक राग है - भगवत रावत*






इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था
राष्ट्र के नाम नहीं
देश के नाम
जानता हूँ ऐसे सन्देश केवल
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समय समय पर देते रहे हैं
जो राष्ट्र के नाम प्रसारित किये जाते हैं
इन संदेशों की कोइ विवशता होगी
तभी तो उनकी भाषा ऐसी तयशुदा होती है की
उनमें कहीं कोई उतार-चढ़ाव नहीं होता
न कहीं मार्मिक स्पर्श

होश संभालने के बाद पिछले पचास वर्षों से
सुनता आ रहा हूँ ऐसे सन्देश और किसी का कोई एक
वाक्य भी ठीक से याद नहीं
मजेदार बात यहाँ है कि 'देशवासियों'-जैसे
आत्मीय संबोधनों से प्रारंभ होने वाले ये सन्देश
देश को भूलकर राष्ट्र-राष्ट्र कहते नहीं थकते
राष्ट्र की मजबूती, राष्ट्र की गरिमा
राष्ट्र की संप्रभुता, रार्ष्ट्रोत्थान जैसे विशेषण वाची
अलंकरणों से से मंडित
ये आत्ममुग्धता और आत्मश्लाघा
के उदाहरण बनकर रहा जाते हैं
मुझे कुछ समझ में नहीं आता
मेरी उलझन बढ़ती ही जाती है
कि देश के भीतर राष्ट्र है या राष्ट्र के भीतर देश
दोनों में कौन किससे छोटा, बड़ा
सर्वोपरि या गौण है
इस विवाद में न पड़ें तो भी
दोनों एक ही हैं यह मानने का मन नहीं करता

अव्वल तो कोई किसी का पर्याय नहीं होता
फिर भी सुविधा के लिए मान ही लें तो
देश का पर्याय राष्ट्र कैसे हो गया
अर्थात देश में सेंध लगाकर काबा राष्ट्र घुस आया
इसका पुख्ता कोई ना कोई कारण और इतिहास
होगा ही, परा मेरा कवी मन आज ताका
उसको स्वीकार नहीं कर पाया
और यदि इसका उलटा ही माना लें,
कि सबसे पुराना राष्ट्र ही है तो
हज़ारों सालों से कहाँ गायब हुआ पड़ा था
तत्सम शब्दावली की कहीं कहीं पोथियों- पुराणों के अलावा

देश-देशान्तरों की मार्मिक कथाओं से भरा पडा है
सारी दुनिया का इतिहास
राष्ट्रों की कहानियां कौन सुनता-सुनाता है
अब आप ही बताइये
कि क्या कोई ठीक-ठीक बता सकता है कि कब
देश कि जगह राष्ट्र और राष्ट्र की जगह देश
कहा जा सकता है

हमारे जवान देश की सीमानों की रक्षा करते हैं
हम देश का इतिहास और भूगोल पढ़ते-पढ़ाते हैं
सना सैंतालीस में हमारा देश आजाद हुआ था
मैं भारत देश का नागरिक हूँ
ऐसे सैकड़ों वाक्य पढ़ते पढ़ाते बीत गयी उम्र
जब-जब, जहां-जहां तक आँखें फैलाई
दूर दूर तक देश ही देश नजर आया
राष्ट्र कहीं दिखा नहीं

आज भी बड़े-बड़े शहरों से मेहनत-मजदूरी करके जब
अपने-अपने घर-गाँव लौटते हैं लोग तो एक दूसरे से
यही कहते हैं कि वे अपने देश जा रहे हैं
वे अपने पशुओं-पक्षियों, खेतों-खलिहानों
नदियों-तालाबों, कुओं-बावडियों, पहाड़ों-जंगलों,
मैदानों-रेगिस्तानों,
बोली- बानियों, पहनावों-पोशाकों, खान-पान
रीति-रिवाज और नाच गानों से इतना प्यार करते हैं
किकुछ न होते हुए गाँठ में
भागे चले जाते हैं हज़ारों मेला ट्रेन में सफ़र करते
बीडी फूंकते हुए

वे सच्चे देश भक्त हैं
वे नहीं जानते राष्ट्र-भक्त कैसे हुआ जाता है
आजादी की लड़ाई में हंसते-हँसते फांसी के फंदों पर
झूलने वाले देश-भक्ति के गीत गाते-गाते
शहीद हो जाते थे
ऊपर कही गही बातों में से देशा की जगह राष्ट्र रखकर
कोई बोलकर तो देखे
राष्ट्र-राष्ट्र कहते-कहते जुबान न लडखडाने लगे
तो मेरा नाम बदल देना
वहीं एक वाक्य में दस बार भी आये देश तो
मीठा ही लगेगा शहद की तरह

देश एक राग है
सुवासित-सुभाषित सा फैलता हुआ धीरे-धीरे
स्नेहित तरंगों की तरह बाहर से भीतर तक
भीतर से बाहर तक
स्वयं अपनी सीमाएं लांघता
सुगन्धित मंद-मंद पवन की तरह
सारी दुनिया को शीतल करता धीरे धीरे
सारी दुनिया का हिस्सा हो जाता है

कितना भी पुराना और पवित्र रहा हो राष्ट्र शब्द का इतिहास
पर आज पता नहीं क्यों बार-बार
यह शब्द एक भारी भरकम बनायी गयी ऐसी अस्वाभाविक
डरावनी आवाज लगता है जो सत्ता और शक्ति के
अहंकार में न जाने किसको
ललकारने के लिए उपजी है
अपना बिगुल खुद बजाती जिससे एक ही शब्द
ध्वनित होता सुनायी देता है
सावधान!
सावधान!
सावधान!

मैं देश के नाम सन्देश देने के बारे में कह रहा था
और कहाँ से कहाँ निकल गया
यह सही है कि मैं न देश का राष्ट्रपति हूँ
न प्रधानमंत्री, नाकोई सांसद, न विधायक
यहाँ तक कि किसी नगरपालिका का कोई
निर्वाचित सदस्य तक नहीं हूँ

पर सभी ये कहते हैं कि ये जो अच्छे-बुरे जो भी हैं
सब मेरे ही कारण हैं
मैंने ही बनाया है उन्हें
तो इसी नागरिक अधिकार के साथ मेरा देश के नाम सन्देश
क्यों प्रसारित नहीं किया जा सकता
की स्वतन्त्र भारत न गढ़ पाने की कोई दबी-छिपी रह गयी
गुलाम मानसिकता
या परायों के तंत्र से मुक्त न हो पाए की कोई
विवशता

आप जो भी कहें
और आप पूरी तरह मुझे गलत भी साबित कर दें
और जो आप कर भी सकते हैं
कहाँ-कहाँ से पुरानो और पोथियों से प्रमाण
खोजकर ला सकते हैं और मुझे चारो खाने चित्त कर सकते हैं
पर जो सामजिक इतिहास मुझे दिखाई देता है
राष्ट्रों का वह कतई आत्मीय नहीं है

अपने ही भारत देश के बारे में सोचकर देखिये
की भारत में महाभारत कभी नहीं होता
यदि उसका सम्राट ध्रितराष्ट्र न होता जिसे
अपने सिंहासन के अलावा
कुछ भी दिखाई नहीं देता था
इतना ही नहीं उसकी रानी ने भी आँखों पर
पट्टी बाँध राखी थी ताकि उसे भी कुछ दिखाई न दे अपने पुत्रों के मोह के अलावा
भारत में महाभारत कुछ अतापता नहीं लगा आपको
और क्या ध्वनी निकलती है इस वाक्य से सत्ता के आतंक, दंभ, हिंसा और
युद्ध के अलावा
जिस-जिस शब्द से जुदा यह 'महा' उपसर्ग
शब्द की सूरत बदल कर रख दी
उदाहरण देने से क्या लाभ
आप ही जोड़कर देख ले सीधे-सादे शब्दों
के आगे यह उपसर्ग
मैं किसी 'शब्द और 'नाम'' का अपमान नहीं
कर रहा हूँ
और 'महाभारत' जैसे आदिग्रंथ का तो बिलकुल नहीं
वह न लिखा गया होता तो
युद्ध की विभीषिका और निरर्थकता का कैसे पता चलता
कैसे पता चलता की युद्ध में हार ही हार होती है
कोइ जीतता नहीं

'राष्ट्र' ही सर्वोपरि है तो एक ही राष्ट्र के भीतर
कई राष्ट्रेयाताओं की धारणा से आज भी
मुक्त नहीं हुए आप
व्यर्थ गयी हजारों वर्षों की यात्रा आपकी
बर्बर तंत्र से प्रजातंत्र तक की
तो फिर जाइए वापस अपने-अपने
राष्ट्रों में
लौट जाइए अंधेरी खाइयों-गुफाओं में
यही तो चाहते हैं आज भी
नए चेहरों वाले आपके पुराने विस्तारवादी
माई-बाप
कभी जो नेशन का सिद्धांत लेकर आये थे और बढाते रहे
अपना साम्राज्य

इतने वर्षों की दासता से कुछ सबक सीखा नहीं आपने
धर्म के नाम परा बांटा गया
खुशी-खुशी बाँट गए
भाषाओं के नाम पर अलग-अलग किया गया
अलग-अलग हो लिए
अब अपनी-अपनी जातियों के नाम पर भी बना लीजिये अपने- अपने, अलग-अलग राष्ट्र
और अब इस बार डूबे तो कोइ किसी को
नहीं बचा पाएगा

मैं फिर कहता हूँ की मैं किसी शब्द और किसी
नाम का अपमान नहीं कर रहा हूँ
केवल उस मानसिकता की तरफ संकेत कर रहा हूँ
जो अपनी कुलीनता के दंभ में अपने ही देश में
अपने ही बर्चस्व का
अलग राष्ट्र हो जाना चाहती है
और धीरे धीरे सारे देश को
इकहरा राष्ट्र बनाना चाहती हैं
आज भी इक्कीसवीं सदी में
ज्ञान-विज्ञान सब एक तरफ रख कर ताक में
रक्त की शुद्धता, पवित्रता की दुहाई देकर
भोले-भाले लोगों को जिन गुफाओं में ले जाकर
ज़िंदा दफन कर देना चाहते हैं वे
इतिहास गवाह है उन गुफाओं से नकलने में
सदियाँ बीत जाती हैं

आप समझ ही गए होंगे बात महज शब्दों की नहीं, प्रवृत्तियों की है
और कठिनाई यही है की उनके बारे में
शब्दों को छोड़कर बात की नहीं जा सकती
भाषा में इस प्रवृत्ति को
'तद्भव' को 'तत्सम' में जबरदस्ती रूपांतरित
करने का शीर्षासन कह सकते हैं
सभी जानते हैं की यह अस्वाभाविक प्रक्रिया है
'फज़ल' ने किस सादगी से कहा था
'पहाड़ तक तो कोइ भी नदी नहीं जाती'

यह मानसिकता देश की बहुरंगी संस्कृति को
पहले राष्ट्र की संस्कृति कहकर इकहरा बनाती है
फिर देश को एक तरफ फेंक
सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का नारा लगाती है
मैं किसकी कसम खाऊँ
मुझे भाषा के किसी शब्द से चिढ़ नहीं है
चिढ़ है तो उस मानसिकता से जो शब्दों को
मनुष्य के विरुद्ध खड़ा कर देती है
जो सिर्फ मनुष्य को दिए गए नामों से पहचानती है
उनकी जातियों से पहचानती है,
उनके रंगों से पहचानती है
और उनकी भाषा में कभी दिए गये ‘ईश्वर’
के नाम के लिए उनके अलग-अलग शब्दों से
पहचानती है

देश देशजों से बनता है
उनकी बहुरंगी छटा देशों का इन्द्रधनुष बनती है
जो सबको अपने-अपने आसमान में दिखाई देता है
कौन होगा जिसका मन इन्द्रधनुष देखकर
इन्द्रधनुष जैसा न हो जाए

मान लिया
मान लिया कि अंग्रेजी के ‘नेशन’ शब्द के लिए हिंदी में
फिर से पैदा हुआ ‘राष्ट्र’
तो ‘नेशन’ शब्द में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं
पश्चिमी दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में
कितना प्यारा है ‘कन्टरी’ शब्द अर्थात ‘देशज’
कब और कैसे दबोच लिया
‘कन्टरी’ जैसे आत्मीय शब्द को ‘नेशन’ ने
यह खोज का विषय होना चाहिए
जरूर उसके पीछे कोई बर्बरता छिपी होगी

इस सबके बाद भी
आपको अपना राष्ट्र मुबारक
मुझे तो अपना देश चाहिए
आपको इक्कीस तोपों की सलामी मुबारक
मुझे आसमान में मेरा लहराता तिरंगा चाहिए
बुरा लगा हो तो माफ करना
मैं तो अपने लोकतंत्र में अपनी छोटी सी
नागरिक इच्छा पूरी करना चाहता था
कि इस बार छब्बीस जनवरी पर
मैं देश के नाम सन्देश देना चाहता था

ठिठुरता हुआ गणतंत्र
हरिशंकर परसाई 

चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा - जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए। दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे। इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा - ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे। एक सिंडीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा - ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता? मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है - ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे। जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा - ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा। साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा - ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’ स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा - ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा? प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा - ‘सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।’ राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’ मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले। स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है - ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं - ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं - ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’ गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता - ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है - ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं - ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है - ‘लो, मैं समाजवाद ले आया।’ समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है। मैं एक कल्पना कर रहा हूँ। दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा - ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए। एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा - ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है।’ कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो। दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे - ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे - ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’ तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे - ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’ मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा - ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’ जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।