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Monday, 20 March 2017

Ravish Kumar: a journalist with a difference

Kuldeep Nayar Journalism Award: Ravish Kumar

It is advised to read the speech rather than listening it. Read it when you are free from hustle and bustle. Read when you are completely free from all preoccupations. Read slowly. Take pause in between . . . . and THINK!

The transcript of the speech in given in Hindi as well as in English below this video.



एंकर पार्टी प्रवक्ता में ढलने और बदलने के लिए अभिशप्त हैं. वे पत्रकार नहीं हैं, सरकार के सेल्समैन हैं. जब भी जनादेश आता है पत्रकारों को क्यों लगता है कि उनके ख़िलाफ़ आया है. क्या वे भी चुनाव लड़ रहे थे? क्या जनादेश से पत्रकारिता को प्रभावित होने की ज़रूरत है?

Ravish Kumar
रवीश कुमार. (फोटो साभार: ट्विटर)
(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार को पहले कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया है. सम्मान समारोह में उन्होंने यह वक्तव्य दिया.) 
उम्र हो गई है तो सोचा कुछ लिखकर लाते हैं. वरना मूड और मौका कुछ ऐसा ही था कि बिना देखे बोला जाए. ख़ासकर एक ऐसे वक़्त में जब राजनीति तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर रही है, अपमान के नए-नए मुहावरे गढ़ रही है.
एक ऐसे वक़्त में जब हमारी सहनशीलता कुचली जा रही है ठीक उसी वक़्त में ख़ुद को सम्मानित होते देखना दीवार पर टंगी उस घड़ी की तरफ़ देखना है जो टिक-टिक करती है. टिक-टिक करने वाली घड़ियां ख़त्म हो गई हैं.
इसलिए हमने आहट से वक़्त को पहचानना बंद कर दिया है, इसलिए हमें पता नहीं चलता कि हमारे बगल में कब कौन-सा ख़तरनाक वक़्त आकर बैठ गया है. हम बेपरवाह हो गए हैं.
हमारी संवेदनशीलता ख़त्म होती जा रही है कि वो सुई चुभाते जा रहे हैं और हम उस दर्द को बर्दाश्त करते जा रहे हैं. हम सब आंधियों के उपभोक्ता बन गए हैं, कनज़्यूम करने लगे हैं.
जैसे ही शहर में तूफान की ख़बर आती है. बारिश से गुड़गांव या दिल्ली डूबने लगती है या चेन्नई डूबने लगती है, हम मौसम समाचार देखने लगते हैं. मौसम समाचार पेश करने वाली अपनी शांत और सौम्य आवाज़ से हम सबको धीरे-धीरे आंधियों और तूफान के कन्ज़्यूमर में बदल रही होती है और हम आंधी के गुज़र जाने का बस इंतज़ार कर रहे होते हैं.
अगली सुबह पता चलता है कि सड़क पर आई बाढ़ में एक कार फंसी थी और उसमें बैठे तीन लोग पानी भर जाने से दम तोड़ गए दुनिया से.
मरना सिर्फ़ श्मशान या कब्रिस्तान में दफ़न कर देना या जला देना नहीं है. मरना वो डर भी है जो आपको बोलने से, आपको लिखने से, आपको कहने से और सुनने से डराता है. हम मर गए हैं. हम उसी तरह के कन्ज़्यूमर में बदलते जा रहे हैं जो मौसम समाचार पेश करने वाली एंकर चाहती है. हम सबको इम्तेहान के एक ऐसे कमरे में बिठा दिया गया है, जहां समय-समय पर फ्लाइंग स्क्वाड या उड़न दस्तों की टोली धावा बोलती रहती है.
वो कभी आपकी जेब की तलाशी लेती है, कभी आपके पन्ने पलटकर देखती है. आप जानते हैं कि आप चोरी नहीं करते हैं लेकिन हर थोड़े-थोड़े समय के बाद उड़न दस्तों की टोली आकर उस दहशत को फिर से फैला जाती है.
आपको लगता है कि अगले पल आपको चोर घोषित कर दिया जाएगा. आपको लगता है कि ऐसा नहीं हो रहा है तो आसपास नज़र उठाकर देखिए कि कितने लोगों को मुक़दमों में फंसाया जा रहा है.
ये वही फ्लाइंग स्क्वाड हैं जो आते हैं आपकी जेब की तलाशी लेते हैं और वे कभी चोर को नहीं पकड़ते लेकिन आपको चोर बनाए जाने का डर आपके भीतर बिठा देते हैं.
तो मुक़दमे, दरोगा, इनकम टैक्स आॅफिसर… ये सब आज कल बहुत सक्रिय हो गए हैं. इनकी भूमिका पहले से कहीं ज़्यादा सक्रिय है और न्यूज़ एंकर हमारे समय का सबसे बड़ा थानेदार है.
वो हर शाम को एक लॉकअप में बदल देता है और जहां विपक्ष, विरोध की आवाज़ या वैकल्पिक आवाज़ उठाने वालों की वो धुलाई करता है उस हाजत (जेल) में बंद करके. अभी तक आप फर्स्ट डिग्री, थर्ड डिग्री, फेक डिग्री में फंसे हुए थे वो आराम से हर शाम थर्ड डिग्री अप्लाई करता है.
वो एंकर आपके समय का सबसे बड़ा गुंडा है और मुझे बहुत ख़ुशी है कि उसी समय में जब मीडिया चैनलों के एंकर गुंडे हो गए हैं… वो नए तरह के बाहुबली हैं तो इसी समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो एंकर को सम्मानित करने का जोख़िम भी उठा रहे हैं.
आने वाला समाज और इतिहास जब ये आंधी और तूफान गुज़र जाएगा और एंकर को गुंडे और उनकी गुंडई की भाषा और भाषा की गुंडई उस पर लिख रहा होगा तो आप लोग इस शाम के लिए याद किए जाएंगे कि आप लोग एक एंकर का सम्मान कर रहे हैं.
ये शाम इतनी भी बेकार नहीं जाएगी. हां, आप जनादेश नहीं बदल सकते हैं, पर वक़्त का आदेश अगर वो भी है तो ये भी है. शुक्रिया गांधी शांति प्रतिष्ठान का, इस पुरस्कार में पत्रकारों को पसीना है. अपने पेशे की वजह से कुछ भी मिल जाए तो समझिए दुआ कुबूल हुई.
हम सब कुलदीप नैयर साहब का आदर करते रहे हैं. करोड़ों लोगों ने आपको पढ़ा है सर! आपने उस सीमा पर जाकर मोमबत्तियां जलाई हैं जिसके नाम पर इन दिनों रोज़ नफरत फैलाई जा रही है.
इस मुल्क में उस मुल्क नाम इस मुल्क के लोगों को बदनाम करने के लिए लिया जा रहा है. शायद वक़्त रहते गुज़रे ज़माने ने आपकी मोमबत्तियों की अहमियत नहीं समझी होगी. उसकी रोशनी को हम सबने मिलकर थामा होता तो वो रोशनी कुछ लोगों के जुनून का नहीं ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की समझ का उजाला बनती.
हमने तब भी यही ग़लती की अब भी यही ग़लती कर रहे हैं. मोहब्बत की बात कितने लोग करते हैं. मुझे तो शक़ है इस ज़माने में लोग मोहब्बत भी करते हैं. ये सोचकर डर जाता हूं कि एंटी रोमियो दस्ते के लोगों को किसी से प्रेम हो गया तो क्या होगा? प्रेम की तड़प में वे किसी पुराने कुर्ते की तरह चराचरा कर फट जाएंगे. दुआ करूंगा कि एंटी रोमियो दस्ते को कभी किसी से प्यार न हो. प्रार्थना करूंगा कि उन्हें कम से कम किशोर कुमार के गाने सुनने की सहनशक्ति मिले.
शेक्सपीयर के कहानी के नायक के ख़िलाफ़ ये जनादेश आया है आपकी यूपी में. हम रोमियो की आत्मा की शांति के लिए भी प्रार्थना करते हैं. आप सब जीवन में कभी किसी से मोहब्बत की है तो अपनी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कीजिएगा.
उम्मीद करता हूं कि अमेरिका के किसी चुनाव में प्रेमचंद के नायकों के ख़िलाफ़ भी कभी कोई जनादेश आएगा. क्या पता आ भी गया हो. एंटी होरी, एंटी धनिया दल नज़र आएंगे.
अनुपम मिश्र जी हमारे बीच नहीं हैं, हमने इस सच का सामना वैसे ही कर लिया है जैसे समाज ने उनके नहीं होने का सामना उनके रहते ही कर लिया था. काश मैं ये पुरस्कार उनके सामने लेता, उनके हाथों से.
जब भी कहीं कोई साफ़ हवा शरीर को छूती है, कहीं पानी की लहर दिखती है मुझे अनुपम मिश्र याद आते हैं. वे एक ऐसी भाषा बचा कर गए हैं जिसके सहारे हम बहुत कुछ बचा सकते हैं.
प्रतिक्रिया में हमारी भाषा हिंसक न हो जाए, इसकी चिंता दुनिया के सामने कोई मिसाल नहीं बनेगी, उसके लिए ज़रूरी है हम फिर से अपनी भाषा को साफ़ करें. अपने अंदर की निर्मलता कई तरह की मलिनताओं से दब गई है. इसलिए ज़रूरी है कि हम अपनी भाषा और विचारों को थोड़ा-थोड़ा संपादित करें. अपने भीतर सब सही नहीं है उनका संपादन करें.
हम संभावनाओं का निर्माण नहीं करते हैं. वो कहां बची हुई है, किस-किस में बची है, किस-किस ने बचाई है, उसकी तलाश कर रहे हैं. ऐसे लोगों के भीतर की जो संभावनाएं हैं वो अब मुझे कभी-कभी कातर लगती हैं.
हम कब तक बचे हुए की चिंता में जीने का स्वाद भी भूल रहे हैं, बचाने का हौसला खो दे रहे हैं. अपने अकेले की संभावनाओं को दूसरों से जोड़ के चल… अंतर्विरोधों का रामायण पाठ बहुत हो गया. जिससे मिलता हूं वो किसी न किसी अंतर्विरोध का अध्यापक लगता है.
अगर आप राजनीति में विकल्प खोजना चाहते हैं तो अंतर्विरोधों को सहेजना सीखिए. बहुतों को उनके समझौतों ने और अधमरा कर दिया है. आज जो भी समय है उसे लाने में उनकी भी भूमिका है, जिनके पास बीते समय में कुछ करने की जवाबदेही थी.
उन लोगों ने धोख़ा दिया. बीते समय में लोग संस्थानों में घुसकर उन्हें खोखला करने लगे. चंद मिसालों को छोड़ दें तो घुन का प्रवेश उनके दौर में शुरू हुआ. विकल्प की बात करने वालों का समाज से संवाद समाप्त हुआ.
समाज भी बदलाव के सिर्फ़ एक ही एजेंट को पहचानता है, राजनीतिक दल. बाकी एजेंटों पर भी राजनीति ने कब्ज़ा कर लिया है. इसलिए राजनीति से भागने का अब कोई मतलब नहीं. अगर कोई एक साल के काम को सौ साल में करना चाहता है तो अलग बात है.
जब अच्छे फेल होते हैं तभी जनता बुरों के साथ जोख़िम उठाती है. हर बार हारती है लेकिन अगली बार किसी बड़े राजनीतिक दल पर ही दांव लगाती है. गांधीवादी, आंबेडकरवादी, समाजवादी, वामपंथी और जो छूट गए हैं वे तमाम वादी. आंधियां जब भी आती हैं तब इन्हीं के पेड़ जड़ से क्यों उखड़ जाते हैं. बोनसाई का बागीचा बनने से बचिए.
आप सभी के राजनीतिक दलों को छोड़कर बाहर आने से राजनीतिक दलों का ज़्यादा पतन हुआ है. वहां परिवारवाद हावी हुआ, कॉरपोरेट हावी हुआ. सांप्रदायिकता से डरने की शक्ति न पहले थी और न अब है.
ये उनके लिए अफ़सोस हम क्यों कर रहे हैं? अगर ख़ुद के लिए है तो सभी को ये चुनौती स्वीकार करनी चाहिए. मैंने राजनीति को कभी अपना रास्ता नहीं माना लेकिन जो लोग इस रास्ते पर आते हैं उनसे यही कहता हूं, राजनीतिक दलों की तरफ़ लौटिए, इधर-उधर मत भागिए.
सेमिनारों और सम्मेलनों से बाहर निकलने का वक़्त आ गया है. वे अकादमिक विमर्श की जगहें हैं, ज़रूरी जगहें हैं लेकिन राजनीतिक विकल्प की नहीं हैं. राजनीतिक दलों में फिर से प्रवेश का आंदोलन करना पड़ेगा. फिर से उन दलों की तरफ लौटिए और संगठनों पर कब्ज़ा कीजिए. वहां जो नेता बैठे हैं वे नेतृत्व के लायक नहीं हैं उन्हें हटा दीजिए.
ये डरपोक लोग हैं… बेईमानी से भर चुके लोग हैं… उनके बस की बात नहीं है. उनकी कायरता, उनके समझौते समाज को दिन-रात तोड़ने का काम कर रहे हैं. एक छोटी से चिंगारी आती है उनके समझौतों के कारण सब कुछ जलाकर चली जाती है.
हम सब के पास अब भी इतना मानव संसाधन बचा हुआ है और इस कमरे में जितने भी लोग हैं वे भी काफी हैं कि हम राजनीति को बेहतर बना सकते हैं.
पत्रकारिता के लिए पुरस्कार मिल रहा है. उस पर भी चंद बात कहना चाह रहा हूं.
मुझे ये बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि आज पत्रकारिता पर कोई संकट नहीं है. ये पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है. राजधानी से लेकर जिला संस्करणों के संपादक इस आंधी में खेत से उड़कर छप्पर पर पहुंच गए हैं. अब जाकर उन्हें पत्रकार होने की सार्थकता समझ में आई है. क्या हम नहीं देख रहे थे कि कई दशकों से पत्रकारिता संस्थान सत्ता के साथ विलीन होने के लिए कितने प्रयास कर रहे थे. जब वे होटल के लाइसेंस ले रहे थे, मॉल के लाइसेंस ले रहे थे, खनन के लाइसेंस ले रहे थे तब वे इसी की तो तैयारी कर रहे थे.
मीडिया को बहुत भूख लगी हुई है. विकल्प की पत्रकारिता को छोड़ अब विलय और विलीन होने की पत्रकारिता का दौर है. सत्तारूढ़ दल की विचारधारा उस विराट के समान है जिसके सामने ख़ुद को बौना पाकर पत्रकार समझ रहा है कि वो भगवान कृष्ण के मुख के सामने खड़ा है.
भारत की पत्रकारिता या पत्रकारिता संस्थान इस वक़्त अपनी प्रसन्नता के स्वर्ण काल में भी हैं. आपको यकीन न हो तो कोई भी अख़बार या कोई भी न्यूज़ चैनल देखिए. आपको वहां उत्साह और उल्लास नज़र आएगा. उनकी ख़ुशी पर झूमिए तो अपनी तकलीफ़ कम नज़र आएगी.
सूटेड-बूटेड एंकर अपनी आज़ादी गंवाकर इतना हैंडसम कभी नहीं लगे. एंकर सरकार की तरफदारी में इतनी हसीन कभी नहीं लगीं. न्यूज़ रूम रिपोर्टरों से ख़ाली हैं.
न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट में अच्छे पत्रकारों को भर्ती करने की जंग छिड़ी है जो वॉशिंगटन के तहखानों से सरकार के ख़िलाफ़ ख़बरों को खोज लाए, ऐसी प्रतियोगिता है वहां. मैं न्यूयॉर्क टाइम्स और वॉशिंगटन पोस्ट की बदमाशियों से भी अवगत हूं. उसी ख़राबे में ये भी सुनने को मिल रहा है. भारत के न्यूज़ रूम से पत्रकार विदा किए जा रहे हैं. सूचना की आमद के रास्ते बंद हैं. ज़ाहिर है धारणा ही हमारे समय की सबसे बड़ी सूचना है.
एंकर पार्टी प्रवक्ता में ढलने और बदलने के लिए अभिशप्त हैं. वे पत्रकार नहीं हैं, सरकार के सेल्समैन हैं. जब भी जनादेश आता है पत्रकारों को क्यों लगता है कि उनके ख़िलाफ़ आया है. क्या वे भी चुनाव लड़ रहे थे? क्या जनादेश से पत्रकारिता को प्रभावित होने की ज़रूरत है?
मगर कई पत्रकार इसी दिल्ली में कनफ्यूज़ घूम रहे हैं कि यूपी के बाद अब क्या करें? आप बिहार के बाद क्या कर रहे थे? आप सतहत्तर के बाद क्या कर रहे थे? आप सतहत्तर के पहले क्या कर रहे थे? 1947 के पहले क्या कर रहे थे और 2025 के बाद क्या करेंगे?
इसका मतलब है कि पत्रकार अब पत्रकारिता को लेकर बिल्कुल चिंतित नहीं है. इसलिए काम न करने की तमाम तकलीफ़ों से आज़ाद आज के पत्रकारों की ख़ुशी आप नहीं समझ सकते, आपके बस की बात नहीं है.
आप पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. जाकर देखिए वे कितने प्रसन्न हैं, कितने आज़ाद महसूस कर रहे हैं किसी श्मशान, किसी राजनीतिक दल और सरकार में विलीन होकर. उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना आप नाप नहीं सकते.
प्रेस रिलीज़ तो पहले भी छाप रहे थे, फर्क़ यही आया है कि अब गा भी रहे हैं. इसको लेकर वे रोज़ गाते हैं. कोई मुंबईवाला ही कर सकता है इस तरह का काम लेकिन अब हम टेलीविजन वाले कर रहे हैं. चाटुकारिता का एक इंडियन आइडल आप कराइए. पत्रकारों को बुलाइए कि कौन किस हुकूमत के बारे में सबसे बढ़िया गा सकता है. अगली बार उसे भी सम्मानित कीजिए. ज़रूरी है कि वक़्त रहते हम ऐसे चाटुकारों का भी सम्मान करें.
अगर आपको लड़ना है तो अख़बार और टीवी से लड़ने की तैयारी शुरू कर दीजिए. पत्रकारिता को बचाने की मोह में फंसे रहने की ज़िद छोड़ दीजिए. पत्रकार नहीं बचना चाहता. जो थोड़े-बहुत बचे हुए हैं उनका बचे रहना बहुत ज़रूरी नहीं.
उन्हें बेदख़ल करना बहुत मुश्किल भी नहीं है. मालूम नहीं कि कब हटा दिया जाऊं. राह चलते समाज को बताइए कि इसके क्या ख़तरे हैं. न्यूज़ चैनल और अख़बार राजनीतिक दल की नई शाखाएं हैं.
एंकर किसी राजनीतिक दल में उसके महासचिव से ज़्यादा प्रभावशाली है. राजनीतिक दल बनने के लिए बनाने के लिए भी आपको इन नए राजनीतिक दलों से लड़ना पड़ेगा. नहीं लड़ सकते तो कोई बात नहीं. जनता की भी ऐसी ट्रेनिंग हो चुकी है कि लोग पूछने आ जाते हैं कि आप ऐसे सवाल आप क्यों पूछते हैं?
स्याही फेंकने वाले प्रवक्ता बन रहे हैं और स्याही से लिखने वाले प्रोपेगेंडा कर रहे हैं. ये भारतीय पत्रकारिता को प्रोपेगेंडा काल है. मगर इसी वर्तमान में हम उन पत्रकारों को कैसे भूल सकते हैं जो संभावनाओं को बचाने में जहां-तहां लगे हुए हैं.
मैं उनका अकेलापन समझ सकता हूं. मैं उनका अकेलापन बांट भी सकता हूं. भले ही उनकी संभावनाएं समाप्त हो जाएं लेकिन आने वाले वक़्त में ऐसे पत्रकार दूसरों के लिए बड़ा उपकार कर रहे हैं.
ज़िलों से लेकर दिल्ली तक कई पत्रकारों को देखा है जूझते हुए. उनकी ख़बर भले ही न छप रही हों लेकिन उनके पास ख़बरें हैं. समाज ने अगर इन पत्रकारों का साथ नहीं दिया तो नुकसान उस समाज का होगा. अगर समाज ने पत्रकारों को अकेला छोड़ दिया तो एक दिन वो अपना एकांत और अकेलापन नहीं झेल पाएगा. तो ज़रूरत है बताकर, आंख से आंख मिलाकर उस समाज को बोलने के लिए कि आप जो हमें अकेला छोड़ रहे हैं और आप जो हमें गालियां दे रहे हैं… आप ये काम हमें हटाने के लिए नहीं अपना वज़ूद मिटाने के लिए कर रहे हैं.
आप उन लोगों से इस तकलीफ के बारे में पूछिए जो आज भी न्यूज़ रूम में हैं और टेलीविजन के न्यूज़ एंकर को आज भी रोज़ दस चिट्ठियां आती हैं. हाथ से लिखी हुई आती हैं. उनकी ख़बरें जब नहीं होती होंगी तो वे किस तकलीफ से गुज़रते होंगे और कहां-कहां लिखते होंगे.
ये समाज पत्रकारों को गाली दे रहा है, ऐसे लोगों की तकलीफ को और बढ़ा रहा है. वे अपने ही हिस्से में जो बेचैन हैं उनकी बेचैनियों को उनकी बेचैनियों के साथ उन्हें मार देने की योजना में वो शामिल हो रहा है.
…तो कई बार समाज भी ख़तरनाक हो जाता है.
बहरहाल जो भी पत्रकारिता कर रहा है, जितनी भी कर रहा है, उसके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूं. जब भी सत्ता की चाटुकारिता से ऊबे हुए या धोख़ा खाए पत्रकारों की नींद टूटेगी और जब वे इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाएंगे उन्हें ऐसे ही लोग आत्महत्या से बचाएंगे.
तब उन्हें लगेगा कि ये वो कर गया है ये मुझे भी करना चाहिए. इसी से मैं बचूंगा. इसलिए जितना हो सकता है संभावनाओं को बचा कर रखिए. अपने समय को उम्मीद और हताशा के चश्मे से मत देखिए.
हम उस पटरी पर है जिस पर रेलगाड़ी का इंजन बिल्कुल सामने है. उम्मीद और हताशा के सहारे आप बच नहीं सकते. उम्मीद ये है कि रेलगाड़ी मुझे नहीं कुचलेगी और हताशा ये है कि अब तो ये मुझे कुचल ही देगी. वक़्त बहुत कम है और इसकी रफ्तार बहुत तेज़ है.
आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
(http://thewirehindi.com/tag/kuldeep-nayar-journalism-award/)

English Translation

Thank you Gandhi Peace Foundation. I am conscious of the fact that this award has been created by the sweat of journalists. Receiving anything from my seniors in the profession is like bakshish to me. Its like having my prayers answered. We all revere Kuldip Nayyar sahab. Millions of people have read you. You have lit candles at those borders in whose name hatred and venom is spread every day. In fact, how many of us are even talking of love? I doubt whether people still think of love. We no longer start our mornings with the rising sun – instead, we begin our day by checking good morning messages on WhatsApp. It seems like soon the world will start believing that the sun rises on WhatsApp. Soon, we are going to prosecute Galileo once again and this time we will get to watch it via live telecast.
Anupam Mishra is not amongst us anymore. We have accepted this truth just like society seemed to have accepted his non-existence even during his lifetime. I wish I had received this award when he was around, perhaps even from him. Whenever I feel a fresh breeze or see a wave of fresh water, I remember Anupam Mishra. He has left us a language that can help save us a lot of things. For that, however, it is important that we clear our souls. The purity within us has been blotted by filth. We must attempt to refine our thoughts and our language, just like Anupam Mishra. We will not be able to stand up without brushing off the layers of dust that are covering us.
This is a phase of discovering possibilities. We are continuously on the lookout for new and remaining possibilities, and the people who continue to cherish and safeguard these new hopes and possibilities. However, these hopes and possibilities are now fading away. In the midst of this, our hopes seem to be growing lonely. How long can we survive – this question is bothering us all. But we have forgotten how to live meaningfully even for the time that we are around. In such a scenario, there is a need to rekindle our energies and passions. Hone your questions. Question the political groups you relied on. Those groups have broken our trust. Also question those in whom you do not have any faith. Our communication with other people in our society has completely broken down. Today’s society pins all its hopes on political parties to bring about change. The society now knows that it is only the politically powerful who can bring about pleasant or dangerous transformation. It is because of this that people do not step back from pinning hopes in political parties. People continue to take this risk. Political parties fail them every time, but the people still place their bets on them the next time.
Political parties have witnessed a constant decline as various members have left them to pursue other directions. These are people who no longer see politics as an instrument for bringing about social change. The absence of such people in political parties has led to a decline in the parties’ morality. There is a need to restructure and reshape political parties. Please set aside your inner contradictions. We’ve seen them enough for the past thirty-forty years. Leftists, Gandhians, Ambedkarites and Socialists –  they have all left their mainstream political formations. With their departure, mainstream politics has lost its sense of alternative politics. Return to those parties and take over these organisations. Forget the past. Work hard for a new politics. It is a good time to recognise our helplessness and cowardice. These dark times are the right occasion for us to assess ourselves by being brutally honest.
I am being awarded for my journalism. It gives me immense pleasure to tell you that there is no crisis in journalism today, if you thought there was one. All the editors – from the capital city to those in small districts are very happy to be swept away by the ideological storm of a particular party. However much we criticise them, we also need to accept that they are extremely happy. It is only now that they feel accomplished as journalists. The media had made incessant efforts for the past fifty-sixty years to merge with political entities. Hotels, malls, mining leases and the different licenses they procured could not satiate their hunger. Their souls remained unfulfilled. Now, they have attained peace. Finally, the media’s dream of being a part of power politics has been fulfilled.
Indian media is currently state of ecstasy. There was a time when people spoke of finding a stairway to heaven; today they have found heaven on earth. The stairway is no longer needed. If you do not believe me, please go ahead and have a look at any newspaper or watch any news channel. You will be overwhelmed by the media’s love for and loyalty to one particular political agenda. Only when you appreciate the bliss they have attained after decades of desperation, will you take your pain less seriously. Never before have these decked-up anchors looked so handsome. Nor have the female anchors praising the government looked as beautiful, ever before. Journalists are also the government now.
If you intend to fight, fight the newspaper and television. Let go of your stubbornness to salvage journalism. Journalists themselves do not want to be saved! The few who are left can be evicted easily. How would the survival of any individual journalist help the situation? Organisations as a whole have been communalised. Journalism is spreading communalism in India. It is thirsty for blood. It will make the nation bleed one day. It may not appear to be very successful in promoting its agenda today, but we cannot ignore its efforts. Thus arises the need for us to deliberate upon this with anyone and everyone we come across. Newspapers and television channels have become branches of political parties. Anchors now wield more power in political parties than the general secretaries of these parties. Until one fights these new political formations, alternative political ideas cannot take shape. They have also managed to hegemonise the minds of people in such a manner that many now ask me why I question things. Those who throw ink are being appointed spokespersons and those who write with ink are only indulging in propaganda. Contemporary journalism is the contemporary propaganda.
But how can we overlook journalists who are making efforts to safeguard possibilities? While these possibilities will eventually fade, their legacy will empower us in the future. Whenever these journalists – tired of sycophancy or humbled by betrayal – wake up from their slumber, it is these cherished hopes and possibilities that will save them.  That is why I insist that we cherish our hopes and possibilities. Refrain from seeing these times through a prism of hope or failure. We are on a railway-track where the giant engine is just before us and there is no way to run away or save ourselves. Neither hope nor failure is an option. It is time to throw yourself into work. We are running short of time and its pace is very fast.
Translated from the Hindi by Ikshula Arora. (https://thewire.in/117630/ravish-kumar-speech-journalism-kuldip-nayyar-award/)