साहित्य के रूपकों
शुरूआती दिनों में, साहित्य के लिए 'आईने' वाला रूपक ठीक है. जब हम बड़े होते जाते है तब रूपक बदलता जाता है.
प्रकाश भी रूपक अच्छा है. आइना अगर 'रिफ्लेक्ट' करता है तो प्रकाश 'अन्धकार को उजालित' करता है. मिरर एंड लैंप.
तो फिर वो कृष्ण की बासुरी और मोरपिछ सा है. जो अपने सुरीलेपन और मुलायमता से वास्तविकता की कठोरता से कही दूर दूर रुमानवाद का एहसास करता है. भारतीय साहित्य में युवा कविओ में यह रूपक काफी लोकप्रिय रहता है.
तो फिर वो कृष्ण की बासुरी और मोरपिछ सा है. जो अपने सुरीलेपन और मुलायमता से वास्तविकता की कठोरता से कही दूर दूर रुमानवाद का एहसास करता है. भारतीय साहित्य में युवा कविओ में यह रूपक काफी लोकप्रिय रहता है.
फिर जोनाथन स्विफ्ट को याद करे तो, वो मधपुडा भी है जहाँ साहित्यकार मधुमक्खी है और मधपुडा , साहित्य।
ये रूपक उन साहित्य के लिए है जो मीठा मधुरा है और जीवनुपयोगी प्रकाश (मोम) भी देता है।
तो कोई साहित्यकर स्पाइडर (मकड़ी) और उनका साहित्य मकड़ी के जाल (स्पाइडर'स वेब) से होता है जो हंमेशा किसी को जाल में फसा कर अपना खुराक बनाता रहता है।
फिर वो 'प्याज़' भी है। परख के निचे परख, न खत्म होने वाली परखे, और जब आप इसे खोलते हो तब आंखे नम हो जाती है या फिर पानी से लबालब।
फिर वो क्ष-रे मशीन की तस्वीर सा बन जाता है जो नापसंद आने वाली ब्लैक&व्हाइट तस्वीर देती है जिसकी सच्चाई से इनकार नही कर सकते।
फिर वो श्रीफल सा, ऊपर से रूक्ष / कठोर सा पर अगर अन्दर खोल कर देख सको तो मीठा जल सा एंड मुलायम सा महसूस होता है.
फिर वो बेर्टोल्ट ब्रेख्त का हथोड़ा बन जाता है तो समाज को ठीक-थक करता है, या फिर काफ्का की कुल्हाड़ी जो जमी हुई बर्फ को तोड़ने का काम करती है.
साहित्य तो अनेकोनेक रुपको से भरा पड़ा है.