Monday, 20 March 2017

Ravish Kumar: a journalist with a difference

Kuldeep Nayar Journalism Award: Ravish Kumar

It is advised to read the speech rather than listening it. Read it when you are free from hustle and bustle. Read when you are completely free from all preoccupations. Read slowly. Take pause in between . . . . and THINK!

The transcript of the speech in given in Hindi as well as in English below this video.



एंकर पार्टी प्रवक्ता में ढलने और बदलने के लिए अभिशप्त हैं. वे पत्रकार नहीं हैं, सरकार के सेल्समैन हैं. जब भी जनादेश आता है पत्रकारों को क्यों लगता है कि उनके ख़िलाफ़ आया है. क्या वे भी चुनाव लड़ रहे थे? क्या जनादेश से पत्रकारिता को प्रभावित होने की ज़रूरत है?

Ravish Kumar
रवीश कुमार. (फोटो साभार: ट्विटर)
(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार को पहले कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया है. सम्मान समारोह में उन्होंने यह वक्तव्य दिया.) 
उम्र हो गई है तो सोचा कुछ लिखकर लाते हैं. वरना मूड और मौका कुछ ऐसा ही था कि बिना देखे बोला जाए. ख़ासकर एक ऐसे वक़्त में जब राजनीति तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर रही है, अपमान के नए-नए मुहावरे गढ़ रही है.
एक ऐसे वक़्त में जब हमारी सहनशीलता कुचली जा रही है ठीक उसी वक़्त में ख़ुद को सम्मानित होते देखना दीवार पर टंगी उस घड़ी की तरफ़ देखना है जो टिक-टिक करती है. टिक-टिक करने वाली घड़ियां ख़त्म हो गई हैं.
इसलिए हमने आहट से वक़्त को पहचानना बंद कर दिया है, इसलिए हमें पता नहीं चलता कि हमारे बगल में कब कौन-सा ख़तरनाक वक़्त आकर बैठ गया है. हम बेपरवाह हो गए हैं.
हमारी संवेदनशीलता ख़त्म होती जा रही है कि वो सुई चुभाते जा रहे हैं और हम उस दर्द को बर्दाश्त करते जा रहे हैं. हम सब आंधियों के उपभोक्ता बन गए हैं, कनज़्यूम करने लगे हैं.
जैसे ही शहर में तूफान की ख़बर आती है. बारिश से गुड़गांव या दिल्ली डूबने लगती है या चेन्नई डूबने लगती है, हम मौसम समाचार देखने लगते हैं. मौसम समाचार पेश करने वाली अपनी शांत और सौम्य आवाज़ से हम सबको धीरे-धीरे आंधियों और तूफान के कन्ज़्यूमर में बदल रही होती है और हम आंधी के गुज़र जाने का बस इंतज़ार कर रहे होते हैं.
अगली सुबह पता चलता है कि सड़क पर आई बाढ़ में एक कार फंसी थी और उसमें बैठे तीन लोग पानी भर जाने से दम तोड़ गए दुनिया से.
मरना सिर्फ़ श्मशान या कब्रिस्तान में दफ़न कर देना या जला देना नहीं है. मरना वो डर भी है जो आपको बोलने से, आपको लिखने से, आपको कहने से और सुनने से डराता है. हम मर गए हैं. हम उसी तरह के कन्ज़्यूमर में बदलते जा रहे हैं जो मौसम समाचार पेश करने वाली एंकर चाहती है. हम सबको इम्तेहान के एक ऐसे कमरे में बिठा दिया गया है, जहां समय-समय पर फ्लाइंग स्क्वाड या उड़न दस्तों की टोली धावा बोलती रहती है.
वो कभी आपकी जेब की तलाशी लेती है, कभी आपके पन्ने पलटकर देखती है. आप जानते हैं कि आप चोरी नहीं करते हैं लेकिन हर थोड़े-थोड़े समय के बाद उड़न दस्तों की टोली आकर उस दहशत को फिर से फैला जाती है.
आपको लगता है कि अगले पल आपको चोर घोषित कर दिया जाएगा. आपको लगता है कि ऐसा नहीं हो रहा है तो आसपास नज़र उठाकर देखिए कि कितने लोगों को मुक़दमों में फंसाया जा रहा है.
ये वही फ्लाइंग स्क्वाड हैं जो आते हैं आपकी जेब की तलाशी लेते हैं और वे कभी चोर को नहीं पकड़ते लेकिन आपको चोर बनाए जाने का डर आपके भीतर बिठा देते हैं.
तो मुक़दमे, दरोगा, इनकम टैक्स आॅफिसर… ये सब आज कल बहुत सक्रिय हो गए हैं. इनकी भूमिका पहले से कहीं ज़्यादा सक्रिय है और न्यूज़ एंकर हमारे समय का सबसे बड़ा थानेदार है.
वो हर शाम को एक लॉकअप में बदल देता है और जहां विपक्ष, विरोध की आवाज़ या वैकल्पिक आवाज़ उठाने वालों की वो धुलाई करता है उस हाजत (जेल) में बंद करके. अभी तक आप फर्स्ट डिग्री, थर्ड डिग्री, फेक डिग्री में फंसे हुए थे वो आराम से हर शाम थर्ड डिग्री अप्लाई करता है.
वो एंकर आपके समय का सबसे बड़ा गुंडा है और मुझे बहुत ख़ुशी है कि उसी समय में जब मीडिया चैनलों के एंकर गुंडे हो गए हैं… वो नए तरह के बाहुबली हैं तो इसी समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो एंकर को सम्मानित करने का जोख़िम भी उठा रहे हैं.
आने वाला समाज और इतिहास जब ये आंधी और तूफान गुज़र जाएगा और एंकर को गुंडे और उनकी गुंडई की भाषा और भाषा की गुंडई उस पर लिख रहा होगा तो आप लोग इस शाम के लिए याद किए जाएंगे कि आप लोग एक एंकर का सम्मान कर रहे हैं.
ये शाम इतनी भी बेकार नहीं जाएगी. हां, आप जनादेश नहीं बदल सकते हैं, पर वक़्त का आदेश अगर वो भी है तो ये भी है. शुक्रिया गांधी शांति प्रतिष्ठान का, इस पुरस्कार में पत्रकारों को पसीना है. अपने पेशे की वजह से कुछ भी मिल जाए तो समझिए दुआ कुबूल हुई.
हम सब कुलदीप नैयर साहब का आदर करते रहे हैं. करोड़ों लोगों ने आपको पढ़ा है सर! आपने उस सीमा पर जाकर मोमबत्तियां जलाई हैं जिसके नाम पर इन दिनों रोज़ नफरत फैलाई जा रही है.
इस मुल्क में उस मुल्क नाम इस मुल्क के लोगों को बदनाम करने के लिए लिया जा रहा है. शायद वक़्त रहते गुज़रे ज़माने ने आपकी मोमबत्तियों की अहमियत नहीं समझी होगी. उसकी रोशनी को हम सबने मिलकर थामा होता तो वो रोशनी कुछ लोगों के जुनून का नहीं ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की समझ का उजाला बनती.
हमने तब भी यही ग़लती की अब भी यही ग़लती कर रहे हैं. मोहब्बत की बात कितने लोग करते हैं. मुझे तो शक़ है इस ज़माने में लोग मोहब्बत भी करते हैं. ये सोचकर डर जाता हूं कि एंटी रोमियो दस्ते के लोगों को किसी से प्रेम हो गया तो क्या होगा? प्रेम की तड़प में वे किसी पुराने कुर्ते की तरह चराचरा कर फट जाएंगे. दुआ करूंगा कि एंटी रोमियो दस्ते को कभी किसी से प्यार न हो. प्रार्थना करूंगा कि उन्हें कम से कम किशोर कुमार के गाने सुनने की सहनशक्ति मिले.
शेक्सपीयर के कहानी के नायक के ख़िलाफ़ ये जनादेश आया है आपकी यूपी में. हम रोमियो की आत्मा की शांति के लिए भी प्रार्थना करते हैं. आप सब जीवन में कभी किसी से मोहब्बत की है तो अपनी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कीजिएगा.
उम्मीद करता हूं कि अमेरिका के किसी चुनाव में प्रेमचंद के नायकों के ख़िलाफ़ भी कभी कोई जनादेश आएगा. क्या पता आ भी गया हो. एंटी होरी, एंटी धनिया दल नज़र आएंगे.
अनुपम मिश्र जी हमारे बीच नहीं हैं, हमने इस सच का सामना वैसे ही कर लिया है जैसे समाज ने उनके नहीं होने का सामना उनके रहते ही कर लिया था. काश मैं ये पुरस्कार उनके सामने लेता, उनके हाथों से.
जब भी कहीं कोई साफ़ हवा शरीर को छूती है, कहीं पानी की लहर दिखती है मुझे अनुपम मिश्र याद आते हैं. वे एक ऐसी भाषा बचा कर गए हैं जिसके सहारे हम बहुत कुछ बचा सकते हैं.
प्रतिक्रिया में हमारी भाषा हिंसक न हो जाए, इसकी चिंता दुनिया के सामने कोई मिसाल नहीं बनेगी, उसके लिए ज़रूरी है हम फिर से अपनी भाषा को साफ़ करें. अपने अंदर की निर्मलता कई तरह की मलिनताओं से दब गई है. इसलिए ज़रूरी है कि हम अपनी भाषा और विचारों को थोड़ा-थोड़ा संपादित करें. अपने भीतर सब सही नहीं है उनका संपादन करें.
हम संभावनाओं का निर्माण नहीं करते हैं. वो कहां बची हुई है, किस-किस में बची है, किस-किस ने बचाई है, उसकी तलाश कर रहे हैं. ऐसे लोगों के भीतर की जो संभावनाएं हैं वो अब मुझे कभी-कभी कातर लगती हैं.
हम कब तक बचे हुए की चिंता में जीने का स्वाद भी भूल रहे हैं, बचाने का हौसला खो दे रहे हैं. अपने अकेले की संभावनाओं को दूसरों से जोड़ के चल… अंतर्विरोधों का रामायण पाठ बहुत हो गया. जिससे मिलता हूं वो किसी न किसी अंतर्विरोध का अध्यापक लगता है.
अगर आप राजनीति में विकल्प खोजना चाहते हैं तो अंतर्विरोधों को सहेजना सीखिए. बहुतों को उनके समझौतों ने और अधमरा कर दिया है. आज जो भी समय है उसे लाने में उनकी भी भूमिका है, जिनके पास बीते समय में कुछ करने की जवाबदेही थी.
उन लोगों ने धोख़ा दिया. बीते समय में लोग संस्थानों में घुसकर उन्हें खोखला करने लगे. चंद मिसालों को छोड़ दें तो घुन का प्रवेश उनके दौर में शुरू हुआ. विकल्प की बात करने वालों का समाज से संवाद समाप्त हुआ.
समाज भी बदलाव के सिर्फ़ एक ही एजेंट को पहचानता है, राजनीतिक दल. बाकी एजेंटों पर भी राजनीति ने कब्ज़ा कर लिया है. इसलिए राजनीति से भागने का अब कोई मतलब नहीं. अगर कोई एक साल के काम को सौ साल में करना चाहता है तो अलग बात है.
जब अच्छे फेल होते हैं तभी जनता बुरों के साथ जोख़िम उठाती है. हर बार हारती है लेकिन अगली बार किसी बड़े राजनीतिक दल पर ही दांव लगाती है. गांधीवादी, आंबेडकरवादी, समाजवादी, वामपंथी और जो छूट गए हैं वे तमाम वादी. आंधियां जब भी आती हैं तब इन्हीं के पेड़ जड़ से क्यों उखड़ जाते हैं. बोनसाई का बागीचा बनने से बचिए.
आप सभी के राजनीतिक दलों को छोड़कर बाहर आने से राजनीतिक दलों का ज़्यादा पतन हुआ है. वहां परिवारवाद हावी हुआ, कॉरपोरेट हावी हुआ. सांप्रदायिकता से डरने की शक्ति न पहले थी और न अब है.
ये उनके लिए अफ़सोस हम क्यों कर रहे हैं? अगर ख़ुद के लिए है तो सभी को ये चुनौती स्वीकार करनी चाहिए. मैंने राजनीति को कभी अपना रास्ता नहीं माना लेकिन जो लोग इस रास्ते पर आते हैं उनसे यही कहता हूं, राजनीतिक दलों की तरफ़ लौटिए, इधर-उधर मत भागिए.
सेमिनारों और सम्मेलनों से बाहर निकलने का वक़्त आ गया है. वे अकादमिक विमर्श की जगहें हैं, ज़रूरी जगहें हैं लेकिन राजनीतिक विकल्प की नहीं हैं. राजनीतिक दलों में फिर से प्रवेश का आंदोलन करना पड़ेगा. फिर से उन दलों की तरफ लौटिए और संगठनों पर कब्ज़ा कीजिए. वहां जो नेता बैठे हैं वे नेतृत्व के लायक नहीं हैं उन्हें हटा दीजिए.
ये डरपोक लोग हैं… बेईमानी से भर चुके लोग हैं… उनके बस की बात नहीं है. उनकी कायरता, उनके समझौते समाज को दिन-रात तोड़ने का काम कर रहे हैं. एक छोटी से चिंगारी आती है उनके समझौतों के कारण सब कुछ जलाकर चली जाती है.
हम सब के पास अब भी इतना मानव संसाधन बचा हुआ है और इस कमरे में जितने भी लोग हैं वे भी काफी हैं कि हम राजनीति को बेहतर बना सकते हैं.
पत्रकारिता के लिए पुरस्कार मिल रहा है. उस पर भी चंद बात कहना चाह रहा हूं.
मुझे ये बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि आज पत्रकारिता पर कोई संकट नहीं है. ये पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है. राजधानी से लेकर जिला संस्करणों के संपादक इस आंधी में खेत से उड़कर छप्पर पर पहुंच गए हैं. अब जाकर उन्हें पत्रकार होने की सार्थकता समझ में आई है. क्या हम नहीं देख रहे थे कि कई दशकों से पत्रकारिता संस्थान सत्ता के साथ विलीन होने के लिए कितने प्रयास कर रहे थे. जब वे होटल के लाइसेंस ले रहे थे, मॉल के लाइसेंस ले रहे थे, खनन के लाइसेंस ले रहे थे तब वे इसी की तो तैयारी कर रहे थे.
मीडिया को बहुत भूख लगी हुई है. विकल्प की पत्रकारिता को छोड़ अब विलय और विलीन होने की पत्रकारिता का दौर है. सत्तारूढ़ दल की विचारधारा उस विराट के समान है जिसके सामने ख़ुद को बौना पाकर पत्रकार समझ रहा है कि वो भगवान कृष्ण के मुख के सामने खड़ा है.
भारत की पत्रकारिता या पत्रकारिता संस्थान इस वक़्त अपनी प्रसन्नता के स्वर्ण काल में भी हैं. आपको यकीन न हो तो कोई भी अख़बार या कोई भी न्यूज़ चैनल देखिए. आपको वहां उत्साह और उल्लास नज़र आएगा. उनकी ख़ुशी पर झूमिए तो अपनी तकलीफ़ कम नज़र आएगी.
सूटेड-बूटेड एंकर अपनी आज़ादी गंवाकर इतना हैंडसम कभी नहीं लगे. एंकर सरकार की तरफदारी में इतनी हसीन कभी नहीं लगीं. न्यूज़ रूम रिपोर्टरों से ख़ाली हैं.
न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट में अच्छे पत्रकारों को भर्ती करने की जंग छिड़ी है जो वॉशिंगटन के तहखानों से सरकार के ख़िलाफ़ ख़बरों को खोज लाए, ऐसी प्रतियोगिता है वहां. मैं न्यूयॉर्क टाइम्स और वॉशिंगटन पोस्ट की बदमाशियों से भी अवगत हूं. उसी ख़राबे में ये भी सुनने को मिल रहा है. भारत के न्यूज़ रूम से पत्रकार विदा किए जा रहे हैं. सूचना की आमद के रास्ते बंद हैं. ज़ाहिर है धारणा ही हमारे समय की सबसे बड़ी सूचना है.
एंकर पार्टी प्रवक्ता में ढलने और बदलने के लिए अभिशप्त हैं. वे पत्रकार नहीं हैं, सरकार के सेल्समैन हैं. जब भी जनादेश आता है पत्रकारों को क्यों लगता है कि उनके ख़िलाफ़ आया है. क्या वे भी चुनाव लड़ रहे थे? क्या जनादेश से पत्रकारिता को प्रभावित होने की ज़रूरत है?
मगर कई पत्रकार इसी दिल्ली में कनफ्यूज़ घूम रहे हैं कि यूपी के बाद अब क्या करें? आप बिहार के बाद क्या कर रहे थे? आप सतहत्तर के बाद क्या कर रहे थे? आप सतहत्तर के पहले क्या कर रहे थे? 1947 के पहले क्या कर रहे थे और 2025 के बाद क्या करेंगे?
इसका मतलब है कि पत्रकार अब पत्रकारिता को लेकर बिल्कुल चिंतित नहीं है. इसलिए काम न करने की तमाम तकलीफ़ों से आज़ाद आज के पत्रकारों की ख़ुशी आप नहीं समझ सकते, आपके बस की बात नहीं है.
आप पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. जाकर देखिए वे कितने प्रसन्न हैं, कितने आज़ाद महसूस कर रहे हैं किसी श्मशान, किसी राजनीतिक दल और सरकार में विलीन होकर. उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना आप नाप नहीं सकते.
प्रेस रिलीज़ तो पहले भी छाप रहे थे, फर्क़ यही आया है कि अब गा भी रहे हैं. इसको लेकर वे रोज़ गाते हैं. कोई मुंबईवाला ही कर सकता है इस तरह का काम लेकिन अब हम टेलीविजन वाले कर रहे हैं. चाटुकारिता का एक इंडियन आइडल आप कराइए. पत्रकारों को बुलाइए कि कौन किस हुकूमत के बारे में सबसे बढ़िया गा सकता है. अगली बार उसे भी सम्मानित कीजिए. ज़रूरी है कि वक़्त रहते हम ऐसे चाटुकारों का भी सम्मान करें.
अगर आपको लड़ना है तो अख़बार और टीवी से लड़ने की तैयारी शुरू कर दीजिए. पत्रकारिता को बचाने की मोह में फंसे रहने की ज़िद छोड़ दीजिए. पत्रकार नहीं बचना चाहता. जो थोड़े-बहुत बचे हुए हैं उनका बचे रहना बहुत ज़रूरी नहीं.
उन्हें बेदख़ल करना बहुत मुश्किल भी नहीं है. मालूम नहीं कि कब हटा दिया जाऊं. राह चलते समाज को बताइए कि इसके क्या ख़तरे हैं. न्यूज़ चैनल और अख़बार राजनीतिक दल की नई शाखाएं हैं.
एंकर किसी राजनीतिक दल में उसके महासचिव से ज़्यादा प्रभावशाली है. राजनीतिक दल बनने के लिए बनाने के लिए भी आपको इन नए राजनीतिक दलों से लड़ना पड़ेगा. नहीं लड़ सकते तो कोई बात नहीं. जनता की भी ऐसी ट्रेनिंग हो चुकी है कि लोग पूछने आ जाते हैं कि आप ऐसे सवाल आप क्यों पूछते हैं?
स्याही फेंकने वाले प्रवक्ता बन रहे हैं और स्याही से लिखने वाले प्रोपेगेंडा कर रहे हैं. ये भारतीय पत्रकारिता को प्रोपेगेंडा काल है. मगर इसी वर्तमान में हम उन पत्रकारों को कैसे भूल सकते हैं जो संभावनाओं को बचाने में जहां-तहां लगे हुए हैं.
मैं उनका अकेलापन समझ सकता हूं. मैं उनका अकेलापन बांट भी सकता हूं. भले ही उनकी संभावनाएं समाप्त हो जाएं लेकिन आने वाले वक़्त में ऐसे पत्रकार दूसरों के लिए बड़ा उपकार कर रहे हैं.
ज़िलों से लेकर दिल्ली तक कई पत्रकारों को देखा है जूझते हुए. उनकी ख़बर भले ही न छप रही हों लेकिन उनके पास ख़बरें हैं. समाज ने अगर इन पत्रकारों का साथ नहीं दिया तो नुकसान उस समाज का होगा. अगर समाज ने पत्रकारों को अकेला छोड़ दिया तो एक दिन वो अपना एकांत और अकेलापन नहीं झेल पाएगा. तो ज़रूरत है बताकर, आंख से आंख मिलाकर उस समाज को बोलने के लिए कि आप जो हमें अकेला छोड़ रहे हैं और आप जो हमें गालियां दे रहे हैं… आप ये काम हमें हटाने के लिए नहीं अपना वज़ूद मिटाने के लिए कर रहे हैं.
आप उन लोगों से इस तकलीफ के बारे में पूछिए जो आज भी न्यूज़ रूम में हैं और टेलीविजन के न्यूज़ एंकर को आज भी रोज़ दस चिट्ठियां आती हैं. हाथ से लिखी हुई आती हैं. उनकी ख़बरें जब नहीं होती होंगी तो वे किस तकलीफ से गुज़रते होंगे और कहां-कहां लिखते होंगे.
ये समाज पत्रकारों को गाली दे रहा है, ऐसे लोगों की तकलीफ को और बढ़ा रहा है. वे अपने ही हिस्से में जो बेचैन हैं उनकी बेचैनियों को उनकी बेचैनियों के साथ उन्हें मार देने की योजना में वो शामिल हो रहा है.
…तो कई बार समाज भी ख़तरनाक हो जाता है.
बहरहाल जो भी पत्रकारिता कर रहा है, जितनी भी कर रहा है, उसके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूं. जब भी सत्ता की चाटुकारिता से ऊबे हुए या धोख़ा खाए पत्रकारों की नींद टूटेगी और जब वे इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाएंगे उन्हें ऐसे ही लोग आत्महत्या से बचाएंगे.
तब उन्हें लगेगा कि ये वो कर गया है ये मुझे भी करना चाहिए. इसी से मैं बचूंगा. इसलिए जितना हो सकता है संभावनाओं को बचा कर रखिए. अपने समय को उम्मीद और हताशा के चश्मे से मत देखिए.
हम उस पटरी पर है जिस पर रेलगाड़ी का इंजन बिल्कुल सामने है. उम्मीद और हताशा के सहारे आप बच नहीं सकते. उम्मीद ये है कि रेलगाड़ी मुझे नहीं कुचलेगी और हताशा ये है कि अब तो ये मुझे कुचल ही देगी. वक़्त बहुत कम है और इसकी रफ्तार बहुत तेज़ है.
आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया.
(http://thewirehindi.com/tag/kuldeep-nayar-journalism-award/)

English Translation

Thank you Gandhi Peace Foundation. I am conscious of the fact that this award has been created by the sweat of journalists. Receiving anything from my seniors in the profession is like bakshish to me. Its like having my prayers answered. We all revere Kuldip Nayyar sahab. Millions of people have read you. You have lit candles at those borders in whose name hatred and venom is spread every day. In fact, how many of us are even talking of love? I doubt whether people still think of love. We no longer start our mornings with the rising sun – instead, we begin our day by checking good morning messages on WhatsApp. It seems like soon the world will start believing that the sun rises on WhatsApp. Soon, we are going to prosecute Galileo once again and this time we will get to watch it via live telecast.
Anupam Mishra is not amongst us anymore. We have accepted this truth just like society seemed to have accepted his non-existence even during his lifetime. I wish I had received this award when he was around, perhaps even from him. Whenever I feel a fresh breeze or see a wave of fresh water, I remember Anupam Mishra. He has left us a language that can help save us a lot of things. For that, however, it is important that we clear our souls. The purity within us has been blotted by filth. We must attempt to refine our thoughts and our language, just like Anupam Mishra. We will not be able to stand up without brushing off the layers of dust that are covering us.
This is a phase of discovering possibilities. We are continuously on the lookout for new and remaining possibilities, and the people who continue to cherish and safeguard these new hopes and possibilities. However, these hopes and possibilities are now fading away. In the midst of this, our hopes seem to be growing lonely. How long can we survive – this question is bothering us all. But we have forgotten how to live meaningfully even for the time that we are around. In such a scenario, there is a need to rekindle our energies and passions. Hone your questions. Question the political groups you relied on. Those groups have broken our trust. Also question those in whom you do not have any faith. Our communication with other people in our society has completely broken down. Today’s society pins all its hopes on political parties to bring about change. The society now knows that it is only the politically powerful who can bring about pleasant or dangerous transformation. It is because of this that people do not step back from pinning hopes in political parties. People continue to take this risk. Political parties fail them every time, but the people still place their bets on them the next time.
Political parties have witnessed a constant decline as various members have left them to pursue other directions. These are people who no longer see politics as an instrument for bringing about social change. The absence of such people in political parties has led to a decline in the parties’ morality. There is a need to restructure and reshape political parties. Please set aside your inner contradictions. We’ve seen them enough for the past thirty-forty years. Leftists, Gandhians, Ambedkarites and Socialists –  they have all left their mainstream political formations. With their departure, mainstream politics has lost its sense of alternative politics. Return to those parties and take over these organisations. Forget the past. Work hard for a new politics. It is a good time to recognise our helplessness and cowardice. These dark times are the right occasion for us to assess ourselves by being brutally honest.
I am being awarded for my journalism. It gives me immense pleasure to tell you that there is no crisis in journalism today, if you thought there was one. All the editors – from the capital city to those in small districts are very happy to be swept away by the ideological storm of a particular party. However much we criticise them, we also need to accept that they are extremely happy. It is only now that they feel accomplished as journalists. The media had made incessant efforts for the past fifty-sixty years to merge with political entities. Hotels, malls, mining leases and the different licenses they procured could not satiate their hunger. Their souls remained unfulfilled. Now, they have attained peace. Finally, the media’s dream of being a part of power politics has been fulfilled.
Indian media is currently state of ecstasy. There was a time when people spoke of finding a stairway to heaven; today they have found heaven on earth. The stairway is no longer needed. If you do not believe me, please go ahead and have a look at any newspaper or watch any news channel. You will be overwhelmed by the media’s love for and loyalty to one particular political agenda. Only when you appreciate the bliss they have attained after decades of desperation, will you take your pain less seriously. Never before have these decked-up anchors looked so handsome. Nor have the female anchors praising the government looked as beautiful, ever before. Journalists are also the government now.
If you intend to fight, fight the newspaper and television. Let go of your stubbornness to salvage journalism. Journalists themselves do not want to be saved! The few who are left can be evicted easily. How would the survival of any individual journalist help the situation? Organisations as a whole have been communalised. Journalism is spreading communalism in India. It is thirsty for blood. It will make the nation bleed one day. It may not appear to be very successful in promoting its agenda today, but we cannot ignore its efforts. Thus arises the need for us to deliberate upon this with anyone and everyone we come across. Newspapers and television channels have become branches of political parties. Anchors now wield more power in political parties than the general secretaries of these parties. Until one fights these new political formations, alternative political ideas cannot take shape. They have also managed to hegemonise the minds of people in such a manner that many now ask me why I question things. Those who throw ink are being appointed spokespersons and those who write with ink are only indulging in propaganda. Contemporary journalism is the contemporary propaganda.
But how can we overlook journalists who are making efforts to safeguard possibilities? While these possibilities will eventually fade, their legacy will empower us in the future. Whenever these journalists – tired of sycophancy or humbled by betrayal – wake up from their slumber, it is these cherished hopes and possibilities that will save them.  That is why I insist that we cherish our hopes and possibilities. Refrain from seeing these times through a prism of hope or failure. We are on a railway-track where the giant engine is just before us and there is no way to run away or save ourselves. Neither hope nor failure is an option. It is time to throw yourself into work. We are running short of time and its pace is very fast.
Translated from the Hindi by Ikshula Arora. (https://thewire.in/117630/ravish-kumar-speech-journalism-kuldip-nayyar-award/)


Sunday, 26 February 2017

TechnoTeachers are Entrepreneurs

The job of the teachers who try to integrate technology keeping pedagogical implications in mind is no less than entrepreneurs.
Their road is equally rocky filled with land mines.
This pilgrim's journey also passes through Slough of Despond, Hill Difficulty, Valley of Humiliation, Valley of the Shadow of Death, Doubting Castle, and the River of Death.
Such teachers have to fight to defeat teachers like Giant Despair, Giant Diffidence, Lord Hate-Good; and sometimes fight to win on their side people like , Obstinate, Mrs. Know-Nothing, Mrs. Bat's-Eye, Giant Maul, Mr. Fearing, Giant Slay-Good, Mr. Feeble-Mind and Mr. Ready-to-Halt.
TechnoTeachers, not only not only have to be self-motivated, but keep motivation level of most of other teachers, who are taking initial steps in using technology, high, hale and hearty.

As mentioned in this infographic, integrating technology is no less than entrepreneurship for teachers. Except for #2 , all these are golden rules for teachers who are willing to integrate technology. In #4, read *Students* instead of *investors*. #5 & #6 are imp. Keep sharing your innovative teaching practices on social media n do not get distracted by negative comments of people with crab mentality.

Saturday, 4 February 2017

Huxley vs Orwell: Dystopian Truth in Post-truth era

Literature, they say, is mirror reflection of not only the time in which it is written but the time that is hidden in future. Some literary texts are so profound that it takes decades to realize the truth captured by the visionary writers. Aldous Huxley's Brave New World (1931) and George Orwell's Nineteen Eighty-Four (1949) are such literary texts. The recent developments in England (BrExit), USA (Donald Trump), France and India (Right Majority coming to power) in 21st century is challenging Globalization. Some see these democratically accepted changes quite critically. But we should not forget that there are backlashes to these challenges also. These backlashes are  signs of more matured form of Democracy. It is this maturity that stands up to question the rise of majoritarianism, religion-ism, region-ism and nationalism.
Neil Postman in the Forward to his book Amusing Ourselves to Death: Public Discourse in the Age of Show Business (1985) compares these two literary texts to conclude that '. . . Huxley and not Orwell, was right'. See below given infographic to understand how Postman believed that Huxley's prophecy seems to be happening thing rather than that of Orwell's.
However, it seems that the prophetic observation made in 1985 by Neil Postman also seems to be limited, if not untrue. There is no possibility of denying the fact that in the year 2017, we are amusing ourselves to stupidity, celebrating dumbness and feeling sensible in nonsense stuff. The kind of lived life shared on social media is living example of it.
Moreover, the Orwellian truth that the Big Brother is watching - under the garb of surveillance and security, grabbed (disguised) control over the subjects seems equally profound. Without inflicting pain, people like docile animals are chained through technology. The power will support the spread of inter'NET' and the hi-bandwidth which, ultimately, will help them to trap and capture citizens and each and every move they make. The Think Police is near than we can ever imagine - and they have a battalion of trolls with them. The trolls do something significant. They instigate. They press the right nerve. They make person express/write/post/tweet something really nasty, really blasphemous, really anti-national. This makes it easy for the Ideological State Apparatus to function smoothly against the voice of dissent.
Huxley and Orwell, together, makes an interesting sense to understand our post-truth era.
  
Image source: http://highexistence.com/amusing-ourselves-to-death-huxley-vs-orwell/






Friday, 27 January 2017

Films, Feminism and Reservation Policy

नारीवादी ओ को नारी प्रधान फिल्मो जैसे की पिंक और दंगल में एक बात खटकती है। ऐसा क्यूँ की इन फिल्मों में सुधारवादी या नारी सशक्तिकरण की बाते कोई बूढ़ा सा पुरुष की जबान में कही जाए?
एक जवाब है।
एक हिंदी कविता में ये लिखा है जो काफी महत्वपूर्ण है।

तुम्हारे भीतर है सदियों पुराना  एक खूसट बूढ़ा जो लाठियां ठकठकाते अभी भी अपनी मुंछों को तेल पिलाते रहता है आखिर तुम कैसे उसकी झुर्रियों के जाल से बाहर आ पाओगी

आखिर कोई कैसे सदियों तक अपनी जमीन बंधक रहने दे सकता है।

इस कविता में यह बात को पुष्टि मिलती है कि कही न कही बूढी दी पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था नारी के subjugation का कारण है। इस व्यस्था का विद्रोह, विरोध और रेजिस्टेंस होना चाहिए। यह जबतक सुबजुगटेड इडेन्टिटीज़ नहीं समजेगी और रेजिस्टेंस नहीं करेगी तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती।
इस समझ के साथ, यज भी समजना जरूरी है कि इस सुधारवादी सफर में अगर हेजिमोनिक पॉवर साथ ना देकर अगर खींचातानी में उतर आता है तो पूरी व्यवस्था में अराजकता फ़ैल जाती है।
इसलिए इस प्रकार की सुधारवादी मूवमेंट्स में हेजिमोनिक पोजीशन में रहे लोगो को आगे आने की जरूरत रहती है। एहसान करने या कुछ देने के लिए नहीं परंतु एक उत्तरदातित्व समझ कर यह करना अनिवार्य है।
बस यही पिंक और दंगल जैसी नारिप्रधान फिल्मों में बुड्ढे पुरुष कर रहे है।
यह अनिवार्य सलूशन नहीं है। इसके बिना भी यह हो सकता है। लेकुन किंतु परंतु, अगर ऐसे पेरीफेरल रेजिस्टेंस को सपोर्ट हेजिमोनिक सेंटर से मिले तो समाज अराजकता से बच कर , एकजूट हो कर प्रोग्रेस कर सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण है अपने (self) अंदर से दुसरो (other)  को समझने का प्रयास करे।

इस ऐनक के साथ रिजर्वेशन पालिसी को देखे तो आज समाज को जो बंटवारा हो रहा है उसे अराजकता से बचाया जा सकता है।
भारत के बहुत सारे राज्यो में सुवर्ण जातीओ को अल्प संख्यक या पछात जातियो में शामिल करने की मुहिम चल रही है।
इस मूवमेंट का एक कारण यह है कि बहोत सारे पछात या बिछड़ी जाती के लोग अच्छी पोजीशन में पहुँच चुके है। यह लॉग ना सिर्फ अमीर बन चुके है पर यह अब पॉवर पोज़िशन्स में है और अपना हेजिमोनिक स्ट्रक्चर बना रहे है। यह थोड़ा हानिकारक है।

जौसे पिंक और दंगल में दिखाया गया है की कोई पुरुष अगर आगे आएंगे तो बात बिना अराजकता से सुलझ सकती है, वैसे अगर वह बिछ्ड़ी जाती के लोग जो लिबरेट हो चुके है वह आगे आकर अपना सैविधानिक हक जाने दे और अपनी नई पीढ़ी को यह समझ दे तो आनेवाले कल को हम सामाजिक अराजकता से बचा सकते है।
यह परिवर्तन इन्ही जाती के लोगो से आना अनिवार्य है।
इसके साथ सवर्ण जाती के लीगो को भी अपनी नई पीढी को ऐतिहासिक समझ देनी है। इतिहास में जिन लीगो के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार हुआ उसकी भरपाई करनी अभी बाकी है - यह समझ भी इतनी ही जरूरी है।

हो यह राहा है कि जिन बिछ्ड़ी जाती के लोगो ने बेनिफिट्स लेके एक मुकाम हासिल किया है , किसी प्रकार के पावर पोज़िशन्स में पहुँच चुके है, वह लोग भी मिल रहे बेनेफिट्स का त्याग नहीं कर रहे। जिस तरह पिंक और दंगल में बुड्ढे पुरूष की आवश्यकता है, ठीक उसी तरह बैकवर्ड क्लास में प्रोग्रेसिव लोगो को आगे आने की भी आवस्यकता है।
जिस तरह महावीरसिंह फोगाट की कहानी लड़कियों के सशक्तिकरण में एक महत्वपूर्ण कदम है, ठीक उसी तरह, बिछ्ड़ी जाती से क्रीमी लेयर के लोगो को आगे आने की जरूरत है।
यह प्रक्रिया में भी अंदर के लोग ही मदद कर सकते है।
अब हम समय की ऐसी कागार पर खड़े है जहाँ इन दो प्रकार की ट्राजेक्टरी बनाना अनिवार्य है - सवर्ण जाती के लोग अपने बच्चो को ऐतिहासिक सत्य, सामाजिक अन्याय के तत्थयो को बराबर समजाये
और बिछ्ड़ी जाती के वह लोग जो आर्थिक, सामाजिक तौर पर क्रीमी लेयर बन चुके है वह आगे आये और अपना सैविधानिक अधिकार त्यागे।

हम सब जानते है यह मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं है। लोगो को एजुकेट करे तो यह हो सकता है।

एक और रास्ता भी है।
थोड़ा कठिन है।
इसमें दो जनरेशन का समय लग सकता है।
लेकिन परिणाम बेहतरीन हो सकता है।
हमें सिर्फ यह करना है कि - आजसे जन्म लेने वाले हर एक बच्चे को नाम नहीं नंबर दिया जाये।
न पहला नाम, न दूसरा नाम, न आखरी नाम। सिर्फ और सिर्फ नंबर।
हमारी भाषा और लिपि सेक्युलर नहीं है। भाषा सांप्रदायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, जातिगत, लिंगजन्य है। हमारे आंकड़े इन विभाजनों से मुक्त है। भाषा और लिपि को छोड़, आंकड़े की और जाने से शायद हम एक बेहतरीन समाज की व्यवस्था का निर्माण कर सकते है।

यूटोपिया वैसे तो ख्याली पुलाव है फिरभी मानव सहज है कि हम यूटोपिया की ख्वाहिश और सपना छोड़ नहीं सकते, तोड़ नहीं सकते।

Friday, 20 January 2017

Education System: School in Forest

In Derridean discourse, it is believed that *Language bears within itself the necessity of its own critique*. The element to undermine the proposition or hypothesis lies within itself.

जो भी हम कहना चाहे
बर्बाद करे अल्फाज़ हमारे  (Irshad kaamil)

_When I pronounce the word Future,the first syllable already belongs to the past._
_When I pronounce the word Silence,I destroy it._
_When I pronounce the word Nothing,I make something no non-being can hold_
( Wislawa Szymborska)

When Chetan Bhagat makes his God say *medium amount* of Intelligence and *a bit* of Imagination, he is actually deconstructing himself.
उसके शव्द उसको बार्बाद कर रहे है।
How? Well, a good literature is not possible without proper use of intelligence and imagination. Intelligence helps to rationalize the events and imagination helps in connecting events with the philosophical thought.
The popular literature is not 'real literature' because it lacks depth of intellectual analysis. Its flight of Imagination is also without wings of philosophy.
Thus only these two adjectives for intelligence n imagination are enough for the critique popular literature. Anyhow, the popular literature has all capacities to transcend these boundaries. It all depends on how deeply the writer can penetrate while dealing with shallowness of its content. Thus, in Chetan Bhagat's use of these words undermines entire popular literature or a sort of 'dramadies' written by similar writers.

Well, we are here to look critically at a popular meme on education system.
Below is given a popular meme on a satire on education system. It is very interesting to see how it criticizes the 'standardization' of education system. To a greater extent it is very difficult to disagree with the statement of satire made by this popular meme.

Well, can we find anything in this image to deconstruct it?

If language bears within itself the necessity of its own critique, how can we find the aporia / loose stone in this meme to deconstruct its very existence. On what grounds can we undermine the signifier so us to make Sign have different signified? 

One of the ways of doing so is to deconstruct the metaphor. The literal reading of metaphor can help in presenting a critique of its sign. In this meme, the animals are used metaphorically. The animals suggest humans with varied capabilities. One animar is good in the skill which it is meant to perform and is utterly incapable of performing other skills. Similarly, it attempts to suggest that humans cannot do everything. All humans are born with a gift to do one or the other things.
That's fine. But this 'maxim' that humans cannot do everything is not aptly used in this meme. Rather, it is fact that humans can do whatever they want to. Though humans are animals, yet humans are intelligent animal. Only human beings have intelligence as well as imagination. This makes human beings capable to have philosophy as well as historical sense. These capacities makes humans far better than other animals. Especially, when it comes to education, there is no parallel between humans and animals. Yes, training is a different things. We can train animals into doing several things and can use them in Circus or domesticate to use them for agrarian works. But we cannot educate animals . We cannot teach language to animals. We cannot teach language to philosophise or have historical sense. Thus, this meme do not convey the right message. It may be good for the satire on 'standardization of tests' but not at all on 'education system'.

Do you have any other points to deconstruct this metaphor?


Sunday, 15 January 2017

Can teacher's leave workplace on time?

Can teacher's leave workplace on time?

If teachers like other work professionals leave workplace on time, is it good for them? Can they do so? Can't say if this was really said by workaholic Dr. APJ Abdul Kalam, but this cannot be applicable on genuine workers in any profession, and never on teachers.

  • 'Love your job, but never love your company . . .' - This cannot be applicable to teachers. Teachers do not work with things, files, personnel. They work with real human beings who are 'students' of varied age group - kids, teens, young adult or just adults. They are 'company' of teachers. Teachers love their company and this company never stops loving them. So, it is irrelevant if teachers are advised to believe in these words.
  •  If 'classroom' is the 'office' for teachers, teachers can leave classroom, but classroom always remains in the mind of the teacher. You can remove teacher out of classroom, but you cannot remove classroom (along with students) our of teacher's mind.
  • It is true that work is never - ending process. The process is to be enjoyed. But to say that 'it can never be completed' is not fair. If the prime work of teacher is to complete syllabus, it can be and should be completed in due time.
  • The students are not clients. They are a part of family - an extended family. True teachers think of character and career of students first and then their own children.
  • If teacher fails, the society has to pay heavy price. Neither family nor friends can repair the loss incurred by society because of failure of a teacher.
  • Teaching does not make life meaningless. Giving meaning to student's life is never meaningless. There can never be anything more to life than the class of smart students. There is no better place to socialize (students are real human beings to socialize), entertain (teaching is half theatre), relax (nothing relaxes better than having somebody to listen) and exercise (most calories burn in teaching) than classroom.
  • There can be no better lie than point no. 5. Those teachers who are administrators also, have to stay late to do admin work as during regular hours, they are in classroom. All office work in pending which has to be completed after all students have left the institute. And teachers carry lots of works of assessment etc for home work. So they do work late nights in preparing some activities, tasks, projects and are busy evaluating students' outcome.
  • Teachers are not machines. They are real human beings, who work with real human beings. So, their work can never be reduced to machine. Teaching is not mechanical job. The teachers may be teaching same topics, year after year, but it always changes the level of teaching, keeping learners in mind. Machines cannot do so.
  • Working late is not the proof of having meaning less life. The teachers who have found real meaning of teaching, work late hours, not only at workplace but at home also.
  • If you are teacher who work hard (or smart or what so ever people want to say) and get this advice from anybody, forward this blog to Mr/Ms. Adviser.  

Saturday, 14 January 2017

Post-truth: The Word of the Year 2016

On Defining Post-Truth


  • After much discussion, debate, and research, the Oxford Dictionaries Word of the Year 2016 is post-truth – an adjective defined as ‘relating to or denoting circumstances in which objective facts are less influential in shaping public opinion than appeals to emotion and personal belief’. (Source: Oxford Dictionary)


Why was this chosen? (Click to read)


A brief history of post-truth (Click to read)

How should we read Post-truth?

  • The compound word post-truth exemplifies an expansion in the meaning of the prefix post- that has become increasingly prominent in recent years. Rather than simply referring to the time after a specified situation or event – as in post-war or post-match – the prefix in post-truth has a meaning more like ‘belonging to a time in which the specified concept has become unimportant or irrelevant’. This nuance seems to have originated in the mid-20th century, in formations such as post-national (1945) and post-racial (1971). (English Language and Usage)
  • In many election campaigns, misinformation and disinformation have victory over information. Facts are no longer considered important in campaigns characterised by post-truth situation. People, manipulated by emotional appeals, treat misinformation and disinformation as information. Recall two recent events — the Brexit and the Trump campaigns. In both the campaigns, emotional appeals and feelings, and not facts (truth), were the factors for Britain leaving the European Union and the triumph of Trump.
  • Evidence-based facts and analysis that Brexit will not be beneficial to the country did not convince fifty-two per cent of the voters in the UK. As Sir John Major has said, the voters were bamboozled by ‘a whole galaxy of inaccurate and frankly untrue information’. It was a post-truth campaign. Take the recent US Presidential campaign by Donald Trump. Though about seventy percent of the statements he made during the election campaign were rated false (by PolitiFact), which was nearly three times the falsity score of Hillary Clinton, Trump was considered more honest and trustworthy than Clinton.
  • It is a classical example of post-truth politics. The nouns that collocate with post-truth are: politicians, era, age, politics, journalism, journalists, brigade, presidency, etc. Examples: post-truth politicians, post-truth era, post-truth journalists, and post-truth brigade. Here are examples of how the word is used in sentences: Mr Trump has been described as the leading exponent of post-truth politics — a reliance on assertions that “feel true” but have no basis in fact.
  • Post-truth politicians along with post-truth journalists and post-truth campaigners are responsible for creating post-truth voters. In the post-truth age, using euphemisms is a trend to convey that someone is a liar. He misinformed the public. (Albert p'Rayan)


Here are some interesting observations by Kathleen Higgins: (Source: nature.com)

  • Post-truth refers to blatant lies being routine across society, and it means that politicians can lie without condemnation. This is different from the cliché that all politicians lie and make promises they have no intention of keeping — this still expects honesty to be the default position. In a post-truth world, this expectation no longer holds.
    This can explain the current political situation in the United States and elsewhere. Public tolerance of inaccurate and undefended allegations, non sequiturs in response to hard questions and outright denials of facts is shockingly high.
  • More radical forms of relativism are often denounced as under­mining basic values. Friedrich Nietzsche, the nineteenth-century phil­osopher who is often invoked to justify post-truth, was such a relativist, and he does suggest at times that deception is rife and should not be cat­egorically rejected. His point is to complicate our view of human behaviour and to object to moral certainties that encourage black-and-white judgements about what’s good and what’s evil. Thus he denies that there are moral facts, saying that we have only “moral interpretations”, and in doing so denies that moral assertions are unconditionally true. But this does not mean there is no truth. Even when he claims that our truths amount to our “irrefutable errors”, he is pointing to the exaggerated clarity of abstractions by comparison with empirical reality.
  • In fact — contrary to how he is often presented — Nietzsche held intellectual honesty at a premium. His most strenuous rejections of ‘truth’ are mostly directed not at truth, but at what has been asserted as true. Yes, Nietzsche was an elitist who was sceptical of democracy, and so his work does not necessarily fault leaders for talking down to the public. But it also points out the inconsistency of religious teachers who assume they have the right to lie.
  • Scientists and philosophers should be shocked by the idea of post-truth, and they should speak up when scientific findings are ignored by those in power or treated as mere matters of faith. Scientists must keep reminding society of the importance of the social mission of science — to provide the best information possible as the basis for public policy. And they should publicly affirm the intellectual virtues that they so effectively model: critical thinking, sustained inquiry and revision of beliefs on the basis of evidence. Another line from Nietzsche is especially pertinent now: “Three cheers for physics! — and even more for the motive that spurs us toward physics — our honesty!”


The students of Nirma University, Ahmedabad, Gujarat were agitating regarding weekend holidays.
The news paper reported it like this:
The news reads: "The students of Nirma Univeristy are agitating as they are given holidays on 2nd and 4th saturdays which is normal practice in Public Universities and govt institutions.

As soon as this was posted on Instagram, the comment from one of the students was posted. Read it:



  • Humour helps understand difficult concept:













Thursday, 12 January 2017

Can technology replace teacher?

Can technology replace teacher?

Is teacher replaceable by technology?

The answer to these questions is another question. The question is why do we ask such questions? Has anything as such happened where humans are replaced by technology?

Well, may be there is something of this sort in our subconscious memory that humans are replaceable by technology and tools. Perhaps, collectively we all have memorised that there are very significant spaces which are encroached by technology and tools.
What is it? Where are these spaces? Are these spaces really existent?
Well, there are such spaces in urban and rural spaces where technology and tools have replaced human beings.
It is factories in urban spaces and agriculture in rural spaces.
The integration of technology in factories has minimised use of humans to almost one tenth.
The technological innovation in agricultural equipment has not only reduced human beings but have changed the skills of people working in agrarian societies.  They have readily accepted the change and adapted new skills necessary to work in rural spaces / agrarian society.
In both these spaces, people have forgot old traditional knowledge and skills and have learned new knowledges and skills.
Moreover, what is interesting is the in both the spaces outcome has not only increased but have become qualitatively better.
Is it this in our memory that makes us feel panic about technology as teachers?
Have we turned technophobic because of this in our collective unconsciousness?
Are we more afraid of technology because it's intervention has bettered the outcome?
May be yes.
We question this because of collective memory.
We deny to accept that teachers can be replaced because we fear that it may give us incredible challenge. It may force us to increase and improvise on our teaching skills and knowledge of pedagogy. If we do not do so our unhoned skills and old knowledge will make us obsolete. We as teachers will soon be outdated and updated technology will replace such outdated teachers.
Teachers will have to remember and understand that Google is not their friend. It is an enemy. One shudder know the language and capacities of  an enemy. Today's teachers shall know the language and capacities of Google. And then master all Google can do . . .  And then go beyond what Google can do.
Google can give information. What Google cannot do is connect dots in such a way that innovation and creativity can be perceived.
Teachers should not be mere information giver. They shall be connectors of dots in this networked era.
Google is just a tip of iceberg so far as technology integration in real world is concerned
Lest much more advanced technology is surely going to replace teachers as it has replaced humans, unhoned skills and old knowledge in factories and agrarian society.





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Tuesday, 10 January 2017

Hollywood, Foreigners, and the Press

MERYL STREEP'S POWERFUL GOLDEN GLOBES SPEECH



(If you cannot view the video, click here to open in YouTube: https://youtu.be/EV8tsnRFUZw )


Thank you, Meryl Streep for reminding that American multiculturalism is not only Salad Bowl but a Melting Pot where people around the globe has melted in one, global culture. It should have been an illustrious example for the world to follow in the 21st Century. . . and this is the right time to remind that we, as human beings, are regressing and disconnecting in the highly connected, networked world. We cannot allow a few groups of fanatics to make all of us fanatics. A few violent groups should not be victorious to make all think and speak the language of violence.
Whether the disabled reporter was mocked or not; what is important in the speech is a reminder about multi-nationality and multi-cultural identity of Hollywood.
 Thank you for this bold and brave pronouncement against Power. Your resistance will inspire and give confidence to many to who stood for the better world then what is unfolding in our times. 
Read full transcript here:
"Thank you very much. Thank you very much. Thank you. Please sit down. Please sit down. Thank you. I love you all. You'll have to forgive me. I've lost my voice in screaming and lamentation this weekend. And I have lost my mind sometime earlier this year. So I have to read.
Thank you, Hollywood foreign press. Just to pick up on what Hugh Laurie said. You and all of us in this room, really, belong to the most vilified segments in American society right now. Think about it. Hollywood, foreigners, and the press. But who are we? And, you know, what is Hollywood anyway? It's just a bunch of people from other places.
I was born and raised and created in the public schools of New Jersey. Viola [Davis] was born in a sharecropper's cabin in South Carolina, and grew up in Central Falls, Rhode Island. Sarah Paulson was raised by a single mom in Brooklyn. Sarah Jessica Parker was one of seven or eight kids from Ohio. Amy Adams was born in Italy. Natalie Portman was born in Jerusalem. Where are their birth certificates? And the beautiful Ruth Negga was born in Ethiopia, raised in -- no, in Ireland, I do believe. And she's here nominated for playing a small town girl from Virginia. Ryan Gosling, like all the nicest people, is Canadian. And Dev Patel was born in Kenya, raised in London, is here for playing an Indian raised in Tasmania.
Hollywood is crawling with outsiders and foreigners. If you kick 'em all out, you'll have nothing to watch but football and mixed martial arts, which are not the arts. They gave me three seconds to say this. An actor's only job is to enter the lives of people who are different from us and let you feel what that feels like. And there were many, many, many powerful performances this year that did exactly that, breathtaking, passionate work.
There was one performance this year that stunned me. It sank its hooks in my heart. Not because it was good. There was nothing good about it. But it was effective and it did its job. It made its intended audience laugh and show their teeth. It was that moment when the person asking to sit in the most respected seat in our country imitated a disabled reporter, someone he outranked in privilege, power, and the capacity to fight back. It kind of broke my heart when I saw it. I still can't get it out of my head because it wasn't in a movie. It was real life.
And this instinct to humiliate, when it's modeled by someone in the public platform, by someone powerful, it filters down into everybody's life, because it kind of gives permission for other people to do the same thing. Disrespect invites disrespect. Violence incites violence. When the powerful use their position to bully others, we all lose.
This brings me to the press. We need the principled press to hold power to account, to call them on the carpet for every outrage.That's why our founders enshrined the press and its freedoms in our constitution. So I only ask the famously well-heeled Hollywood Foreign Press and all of us in our community to join me in supporting the committee to protect journalists. Because we're going to need them going forward. And they'll need us to safeguard the truth.
One more thing. Once when I was standing around on the set one day whining about something, we were going to work through supper, or the long hours or whatever, Tommy Lee Jones said to me, isn't it such a privilege, Meryl, just to be an actor. Yeah, it is. And we have to remind each other of the privilege and the responsibility of the act of empathy. We should all be very proud of the work Hollywood honors here tonight.
As my friend, the dear departed Princess Leia, said to me once, take your broken heart, make it into art. Thank you."